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धर्मामृत (अनगार) शोध्यः-कर्ममलं कोण्डकं च त्याजयितुमशक्यः । रुद्धः-आसक्ति नीतः छादितश्च ।
'शक्यो यथापनेतुं न कोण्डकस्तन्दुलस्य सतुषस्य ।
न तथा शक्यं जन्तोः कर्ममलं सङ्गसक्तस्य ॥ [ ] गुणं-अहिंसकत्वाभिगम्यत्वादिकम् । अबहिः-आभ्यन्तरान् । तद्यथा
'मिच्छत्तवेदरागा हस्सादीया य तह य छद्दोसा ।
चत्तारि तह कसाया चउदसम्भंतरा गंथा ॥ [ भ. आरा. १११८ गा. ] दश क्षेत्रादीन् । यदाह
'क्षेत्रं धान्यं धनं वास्तु कुप्यं शयनमासनम् ।
द्विपदाः पशवो भाण्डं बाह्या दश परिग्रहाः॥' [सोम. उपा. ४३३ श्लो.] जैसे बाहरमें तुषसे वेष्टित चावल अर्थात् धान बाहरका छिलका दूर हुए बिना अन्दरसे शुद्ध नहीं हो सकता, वैसे ही बाह्य परिग्रहमें आसक्त हुआ जीव अभ्यन्तर कर्ममलको छोड़ने में असमर्थ होनेसे अन्तःशुद्ध नहीं हो सकता। इसपर-से यह शंका हो सकती है कि यदि ऐसी बात है तो बाह्य परिग्रह ही छोड़ना चाहिए, अन्तरंग परिग्रह नहीं छोड़ना चाहिए ? इसके उत्तरमें कहते हैं जैसे केंचुलीसे रहित भी सर्प विषधर होनेसे गुणी नहीं हो जाता किन्तु विष रहनेसे दोषी ही होता है, वैसे ही बाह्य परिग्रहसे रहित भी जीव यदि अन्दरमें ममत्व भाव रखता है तो अहिंसा आदि गुणोंका पात्र नहीं होता, किन्तु दोषोंका ही पात्र होता है। इसलिए चारित्रकी रक्षाके लिए और मोक्षकी प्राप्तिके लिए अन्तरंग चौदह और बाह्य दस परिग्रहोंको छोड़ना चाहिए ॥१०५॥
विशेषार्थ-बाह्य परिग्रहोंको त्यागे बिना अन्तःशुद्धि उसी प्रकार सम्भव नहीं है जैसे धानके ऊपरका छिलका दूर हुए बिना धानके अन्दर चावलके ऊपरका लाल आवरण दूर होकर चावल स्वच्छ सफेद नहीं हो सकता। कहा है-'जैसे तुष (छिलका) सहित चावलके ऊपरका लाल छिलका दूर नहीं किया जा सकता वैसे ही परिग्रहमें आसक्त जीवका कर्ममल दूर नहीं किया जा सकता।'
किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि केवल बाह्य परिग्रह ही छोड़ने योग्य हैं या बाह्य परिग्रहके छोड़नेसे अन्तरंग परिग्रहसे छुटकारा मिल जाता है। बाह्य परिग्रहकी तरह अन्तरंग परिग्रह भी छोड़ना चाहिए तथा उसके लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए । बाह्य परिग्रह छोड़ देनेपर भी यदि शरीरके प्रति भी ममत्व भाव बना रहा तो शरीरके नग्न रहनेपर भी परिग्रहसे छुटकारा नहीं हो सकता। अभ्यन्तर परिग्रह इस प्रकार हैं-मिथ्यात्व -वस्तुके यथार्थ स्वरूपका अश्रद्धान, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद अर्थात् स्त्रीवेद नोकषायके उदयसे पुरुषमें, पुरुषवेद नोकषायके उदयसे स्त्रीमें और नपुंसकवेद नोकषायके उदयसे दोनोंमें रमणकी अभिलाषा, हास्य, भय, जुगुप्सा, रति, अरति, शोक तथा चार कषाय ये चौदह अन्तरंग परिग्रह हैं। और खेत, गृह, धन-सुवर्णादि, धान्य गेहूँ आदि, कुप्य वस्त्र आदि, भाण्ड-हींग, मिर्चा आदि, दासदासी-भृत्यवर्ग, हाथी आदि चौपाये सवारी, शय्या-आसन ये दस बाह्य परिग्रह हैं। सोमदेवके उपासकाध्ययनमें यानको नहीं गिनाया है और शय्या तथा आसनको अलग-अलग गिनकर दस संख्याकी पूर्ति की है।
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