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चतुर्थं अध्याय
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इत्येवं - इतिशब्दः स्वरूपार्थः एवंशब्दः प्रकारार्थः । तेनाहं याज्ञिकोऽहं परिव्राडहं राजाहं पुमानहं स्त्रीत्यादि - मिथ्यात्वादिविवर्ताभिनिवेशा गृह्यन्ते । खलु – अतोऽपि न कोऽप्यन्योऽहमिति ग्राह्यम् | आकिञ्चन्यं नैर्मल्यम् | सुसिद्धमन्त्रः - यो गुरुपदेशानन्तरमेव स्वकर्म कुर्यात् । यदाहुः— 'सिद्धः सिध्यति कालेन साध्यो होमजपादिना । सिद्धस्तत्क्षणादेव और मूलान्निकृन्तति ॥' [
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धुन्वन्ति - निगृह्णन्ति । चित्रं - अकिञ्चनाश्च जगत्स्वामिनश्चेत्याश्चर्यम् ॥ १०४॥ अथोभयपरिग्रहदोषख्यापनपुरस्सरं श्रेयोर्थिनस्तत्परिहारमुपदिशति-
शोध्योऽन्तनं तुषेण तण्डुल इव ग्रन्थेन रुद्धो बहि
जवस्तेन बहिभुं वाऽपि रहितो मूर्छामुपार्छन् विषम् । निर्मोकण फणीव नार्हति गुणं दोषैरपि त्वेधते, तद्ग्रन्थानबहिश्चतुर्दश बहिश्चोज्झेद्दश श्रेयसे ॥१०५॥
उसकी व्याख्यामें बाह्य गाय, भैंस, मणि, मुक्ता आदि चेतन-अचेतन वस्तुओंके और राग आदि उपाधियोंके संरक्षण, अर्जनके संस्कार रूप व्यापारको मूर्छा कहा है । इसपर से यह शंका की गयी कि यदि मूर्छाका नाम परिग्रह है तब तो बाह्य वस्तु परिग्रह नहीं कही जायेगी क्योंकि मूर्छा तो आभ्यन्तरका ही ग्रहण होता है । इसके उत्तर में कहा है- - उक्त कथन सत्य ही है क्योंकि प्रधान होनेसे अभ्यन्तर को ही परिग्रह कहा है । बाह्यमें कुछ भी पास न होनेपर भी 'मेरा यह है' इस प्रकार संकल्प करनेवाला परिग्रही होता है । इसपर पुनः शंका हुई कि तब तो बाह्य परिग्रह नहीं ही हुई । तो उत्तर दिया गया कि ऐसी बात नहीं है । बाह्य भी परिग्रह है क्योंकि मूर्छाका कारण है । पुनः शंका की गयी - यदि 'यह मेरा है' इस प्रकारका संकल्प परिग्रह है तो सम्यग्ज्ञान आदि भी परिग्रह कहलायेंगे क्योंकि जैसे राग आदि परिणाममें ममत्व भाव परिग्रह कहा जाता है वैसे ही सम्यग्ज्ञानादिक में भी ममत्व भाव होता है । तब उत्तर दिया गया कि जहाँ प्रमत्तभावका योग है वहीं मूर्छा है । अतः सम्यगज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रसे युक्त व्यक्ति अप्रमत्त होता है । उसके मोहका अभाव होने से मूर्छा नहीं है अतः वह अपरिग्रही है । दूसरी बात यह है कि ज्ञान आदि तो आत्माका स्वभाव है । उसे छोड़ा नहीं जा सकता अतः वह परिग्रह में सम्मिलित नहीं है । किन्तु राग आदि तो कर्मके उदयसे होते हैं, वे आत्माके स्वभाव नहीं हैं अतः छोड़ने योग्य हैं । उनमें 'यह मेरे हैं' ऐसा संकल्प करना परिग्रह है । यह संकल्प सब दोषोंका मूल है । 'यह मेरा है' ऐसा संकल्प होनेपर उसकी रक्षाका भाव होता है । उसमें हिंसा अवश्य होती है । _ परिग्रहकी रक्षा के लिए उसके उपार्जन के लिए झूठ बोलता है, चोरी भी करता है अतः परिग्रह सब अनर्थोंकी जड़ है। उससे छुटकारा पानेका रास्ता है आकिंचन्यरूप सुसिद्ध मन्त्रका निरन्तर अभ्यास । जो मन्त्र गुरुके उपदेशके अनन्तर तत्काल अपना काम करता है उस मन्त्रको सुसिद्ध कहते हैं । कहा है- 'जो काल पाकर सिद्ध होता है वह सिद्ध मन्त्र है । जो होम-जप आदिसे साधा जाता है वह साध्य मन्त्र है । और जो तत्क्षण ही शत्रुको मूलसे नष्ट कर देता है वह सुसिद्ध मन्त्र है । '
आकिंचन्य भाव परिग्रहका पाश छेदनेके लिए ऐसा ही सुसिद्ध मन्त्र है ॥ १०४ ॥ दोनों ही प्रकारके परिग्रहोंके दोष बताते हुए मुमुक्षुओंको उनके त्यागका उपदेश
देते हैं—
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