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धर्मामृत ( अनगार) अथाकिञ्चन्यव्रतमष्टचत्वारिंशता पद्यावर्णयितुमनास्तत्र शिवार्थिनः प्रोत्साहयितुं लोकोत्तरं तन्माहात्म्यमादावादिशति
मूर्छा मोहवशान्ममेदमहमस्येत्येवमावेशनं,
तां दुष्ट ग्रहवन्न मे किमपि नो कस्याप्यहं खल्विति । आकिञ्चन्य-सुसिद्धमन्त्रसतताभ्यासेन धुन्वन्ति ये
ते शश्वत्प्रतपन्ति विश्वपतयश्चित्रं हि वृत्तं सताम् ॥१०४॥ मोहवशात्-चारित्रमोहवशात् चारित्रमोहनीयकर्मविपाकपारतन्त्र्यात् । उक्तं च
'या मूर्छानामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहोऽयमिति ।
मोहोदयादुदीर्णो मूर्छा तु ममत्वपरिणामः ॥' [पुरुषार्थ. १११] तो हुई ही दुर्दशा भी कम नहीं हुई। महाभारत आदिमें उनकी कथा वर्णित है । अतः मुक्तिमार्गके पथिकोंको चारित्र मोहनीय महाराजसे बहुत सावधान रहना चाहिए । उनका देनापावना चुकता करके मोक्षके मार्गमें पग रखना चाहिए अन्यथा उनके सिपाही आपको पकड़े बिना नहीं रहेंगे ॥१०३॥ __ इस प्रकार ब्रह्मचर्य व्रतका वर्णन समाप्त हुआ।
आगे अड़तालीस पद्योंसे आकिंचन्यव्रतको कहना चाहते हैं। सर्वप्रथम मुमुक्षुको प्रोत्साहित करनेके लिए उस व्रतका अलौकिक माहात्म्य बतलाते हैं
मोहनीय कर्मके उदयसे 'यह मेरा है' 'मैं इसका हूँ' इस प्रकारका जो अभिप्राय होता है उसे मी कहते हैं। इलोकमें आया 'एवं' शब्द प्रकारवाची है। अतः 'मैं याज्ञिक हूँ', 'मैं संन्यासी हूँ', 'मैं राजा हूँ' 'मैं पुरुष हूँ', 'मैं स्त्री हूँ', इत्यादि मिथ्यात्वमूलक अभिप्रायोंका ग्रहण होता है। इस प्रकारके सभी अभिप्राय मूर्छा हैं। कोई भी बाह्य या आभ्यन्तर कामक्रोधादि वस्तु मेरी नहीं है और न मैं भी किसी बाह्य या आभ्यन्तर वस्तुका हूँ। 'खलु' शब्दसे कोई अन्य मैं नहीं हूँ और न मैं कोई अन्य हूँ इस प्रकारके आकिंचन्यव्रतरूप सुसिद्ध मन्त्रके निरन्तर अभ्याससे जो ब्रह्मराक्षस आदि दुष्ट ग्रहके समान उस मुर्छाका निग्रह करते हैं वे तीनों लोकोंके स्वामी होकर सदा प्रतापशाली रहते हैं। यहाँ यह शंका हो सकती है कि अकिंचन जगत्का स्वामी कैसे हो सकता है। अतः कहते हैं कि सन्त पुरुषोंका चरित अलौकिक होता है ॥१०४॥
विशेषार्थ-मेरा कुछ भी नहीं है इस प्रकारके भावको आकिंचन्य कहते हैं, उसका अर्थ होता है निर्ममत्व । अतः ममत्वका या मूर्छाका त्याग आकिंचन्यत्रत है। इसका दूसरा नाम परिग्रहत्यागवत है । वास्तवमें मूर्छाका नाम ही परिग्रह है। कहा है-'जो यह मुर्छा है उसे ही परिग्रह जानना चाहिए। मोहनीय कर्मके उदयसे होनेवाले ममत्व परिणामको मुर्छा कहते हैं।' ग्रन्थकार आशाधरने अपनी संस्कृत टीकामें मोहसे चारित्रमोहनीय लिया है क्योंकि चारित्रमोहनीयके भेद लोभके उदयमें ही परिग्रह संज्ञा होती है। कहा है--'उपकरणके देखनेसे, उसके चिन्तनसे, म भाव होनेसे और लोभकर्मकी उदीरणा होनेपर परिग्रह संज्ञा होती है।' तत्त्वार्थ सूत्र ७१७ में मूर्छाको परिग्रह कहा है। पूज्यपाद स्वामीने १. उवयरणदसणेण तस्सुवजोगेणे मूच्छिदाए य।
लोहरसुदीरणाए परिग्गहे जायदे सण्णा ॥-गो. जी. १३८ गा.।
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