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धर्मामृत (अनगार )
मृगैरिव सुखबुद्ध्या लोकैरौत्सुक्यादभिगम्यमानत्वात् । त्याज्यं - त्यक्तुं ( शक्यं ) गृहगृहिण्यादिकम् । अपर निर्मम: - त्यक्तुमशक्यशरीरादौ ममेदमिति संकल्परहितः । उक्तं च
'जीवाजीवणिबद्धा परिग्गहा जीवसंभवा चेव । तेसि सक्कच्चाओ इय भणिओ णिम्ममो संगो ॥' [
] ॥ १०६॥
परिग्रहको अपने पास नहीं रखना चाहिए। अपने पास न रखनेसे ऐसा आशय नहीं लेना चाहिए कि स्वयं न रखकर किसी दूसरेके अधिकार में रख दे जैसा कि आजकल साधु संघ मोटर रखते हैं और उसे किसी संघस्थ श्रावकको सौंप देते हैं । यह परिग्रहका त्याग नहीं है उसका भोग है । क्योंकि यद्यपि साधु स्वयं मोटर में नहीं बैठते किन्तु उनका संकल्पजाल उसमें बराबर रहता है । अपरिग्रही साधुके लिए तो जो छोड़ा नहीं जा सकता उस शरीरमें भी ममत्व भाव त्याज्य है । मोहके उदयसे ममकार और अहंकार होते हैं । ममकार और अहंकार करनेसे आत्मा रागमें होता है ।
इन दोनोंका स्वरूप इस प्रकार कहा' है- 'जो सदा आत्माके नहीं हैं और कर्मके उदयसे बने हैं ऐसे अपने शरीर वगैरह में 'यह मेरा है' इस प्रकारका अभिप्राय ममकार है । जैसे मेरा शरीर । जो भाव कर्म जन्य हैं और निश्चयनयसे आत्मासे भिन्न हैं उन्हें अपना मानना अहंकार है । जैसे 'मैं राजा हूँ' । तो जिस परिग्रहको छोड़ना शक्य नहीं है उसमें भी ममकार करना जब परिग्रह है तब जिसका त्याग कर चुके उसे ही प्रकारान्तरसे अपनाना तो परिग्रह है ही । और परद्रव्यका ग्रहण ही बन्धका कारण है तथा स्वद्रव्य में ही लीन होना मोक्षका कारण है । कहा है- जो परद्रव्यको स्वीकार करता है, उसमें ममत्व भाव रखता है, वह अपराधी है अतः अवश्य बँधता है । और जो यति स्वद्रव्यमें लीन रहता है वह निरपराधी है अतः नहीं बँधता ।
और भी कहा है - जो कोई भी मुक्त हुए हैं वे भेद विज्ञानसे मुक्त हुए हैं । और जो कोई बँधे हैं वे उसी भेदविज्ञानके अभाव से बँधे हैं यह निश्चित है । भेद विज्ञानसे मतलब है एक मात्र अपने शुद्ध आत्मामें और आत्मिक गुणोंमें स्वत्व भाव और उससे भिन्न कर्मजन्य सभी पदार्थोंमें सभी भावोंमें आत्मबुद्धिका निरास । यह भेद विज्ञानकी भावना सतत चलती रहना चाहिए। इसका विच्छेद होनेपर ममत्वभाव आये बिना रहता नहीं । परिग्रहको छोड़ देने मात्रसे वह नहीं छूटती उसके लिए सदा जागरूक रहना पड़ता है क्योंकि उसकी जड़ तो ममत्व भाव है ॥ १०६ ॥
१. शश्वदनात्मीयेषु स्वतनुप्रमुखेषु कर्मजनितेषु । आत्मीयाभिनिवेशो ममकारो मम यथा देहः ॥ ये कर्मकृता भावाः परमार्थनयेन चात्मनो भिन्नाः । तत्रात्माभिनिवेशोऽहङ्कारोऽहं यथा नृपतिः ॥
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- तत्त्वानुशा. १४-१५ श्लोक ।
२. भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धाः ये किल केचन । तस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ||
-सम. कलश - १३१ ।
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