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________________ प्रस्तावना ३५ भगवन् ! वीतराग स्वसंवेदनज्ञानका विचार करते समय आप वीतराग विशेषणका प्रयोग क्यों करते हैं ? क्या स्वसंवेदनज्ञान सराग भी होता है ? उत्तर - विषयसुखके अनुभवका आनन्दरूप स्वसंवेदन ज्ञान सब जनोंमें प्रसिद्ध है किन्तु वह सरागस्वसंवेदन ज्ञान है । परन्तु शुद्धात्म सुखको अनुभूतिरूप स्वसंवेदन ज्ञान वीतराग है । स्वसंवेदन ज्ञानके व्याख्यान में सर्वत्र ऐसा जानना चाहिए । इससे भोगीजन भी यह अनुभवन कर सकते हैं कि स्वसंवेदनज्ञान कैसा होता है । भोगके समय जब मनुष्यका वीर्यस्खलन होता है तब उसके विकल्पमें एकमात्र 'स्व' की ही अनुभूति रहती है । किन्तु वह अनुभूति रागाविष्ट है । ऐसी ही अनुभूति योगीको जब होती है जिसमें द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मसे रहित केवल शुद्धात्माका अनुभवन रहता है वह वीतराग स्वसंवेदन होता है । वस्तुतः वह भावश्रुतज्ञानरूप होनेसे परोक्ष है तथापि उस कालमें उसे प्रत्यक्ष तुल्य माना गया है । उसीका विकास निरावरण अवस्था में केवलज्ञानरूपसे होता है । उसीको दृष्टिमें रखकर सागार धर्मामृत ( ८९२ ) में समाधि में स्थित श्रावकको लक्ष्य करके आशाधरजीने कहा है 'शुद्धं श्रुतेन स्वात्मानं गृहीत्वार्य स्वसंविदा | भावयंस्तल्लयापास्तचिन्तो मृत्वंहि निर्वृत्तिम् ॥' हे आर्य ! श्रुतज्ञानके द्वारा राग-द्वेष-मोहसे रहित शुद्ध आत्माको स्वसंवेदन ज्ञानके द्वारा ग्रहण करके और उसी में लीन हो, सब चिन्ताओंसे निर्मुक्त होकर मरण करो और मुक्ति प्राप्त करो । इसी से मुमुक्षुके लिए मुख्यरूपसे अध्यात्मका श्रवण, मनन, चिन्तन बहुत उपयोगी है । उसके बिना इस अशुद्ध दशा में भी शुद्धात्माकी अनुभूति सम्भव नहीं है । और शुद्धात्माकी अनुभूतिके बिना समस्त व्रत, तप आदि निरर्थक हैं । अर्थात् उससे शुद्धात्माकी उपलब्धिरूप मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती । ज्ञानी और अज्ञानीमें अन्तर समयसार के निर्जराधिकारमें कहा है कि सम्यग्दृष्टि यह जानता है कि निश्चयसे राग पौद्गलिक है । पुद्गल कर्मके उदयके विपाकसे उत्पन्न होता । यह मेरा स्वभाव नहीं है । मैं तो टंकोत्कीर्ण ज्ञायकभावस्वरूप हूँ । इस प्रकार तत्त्वको अच्छी तरह जानता हुआ स्वभावको ग्रहण करता है और परभावको त्यागता है । अतः जैसे कोई वैद्य विषकी मारणशक्तिको मन्त्र-तन्त्र, औषध आदिसे रोककर विष भक्षण करे तो मरणको प्राप्त नहीं होता उसी तरह ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुद्गल कर्मके उदयको भोगता हुआ भी नवीन कर्मोंसे नहीं बँधता । अथवा जैसे कोई व्यापार कराता है यद्यपि वह स्वयं व्यापार नहीं करता किन्तु व्यापारी मुनीमके द्वारा व्यापारका स्वामी होनेके कारण हानि-लाभका जिम्मेदार होता है । और मुनीम व्यापार करते हुए भी उसका स्वामी न होनेसे हानि-लाभका जिम्मेदार नहीं होता । उसी तरह सम्यग्दृष्टि भी पूर्व संचित कर्मके उदयसे प्राप्त इन्द्रियविषयोंको भोगता है तो भी रागादि भावोंके अभाव के कारण विषयसेवनके फलमें स्वामित्वका भाव न होनेसे उसका सेवन करनेवाला नहीं कहा जाता । और मिध्यादृष्टि विषयोंका सेवन नहीं करते हुए भी रागादि भावोंका सद्भाव होनेसे विषयसेवन करनेवाला और उसका स्वामी होता है । यहाँ सम्यग्दृष्टि तो मुनीम के समान है और मिथ्यादृष्टि व्यापारीके समान है । एक भोग भोगते हुए भी बँधता नहीं है और दूसरा भोग नहीं भोगते हुए भी बँधता है । यहाँ यह शंका होती है कि परद्रव्यसे जबतक राग रहता है तबतक यदि मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है तो अविरत सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानोंमें चारित्रमोहके उदयसे रागादिभाव होते हैं तब वहाँ सम्यक्त्व कैसे कहा है ? इसका समाधान यह है कि अध्यात्ममें मिथ्यात्वसहित अनन्तानुबन्धीजन्य रागको ही प्रधान रूपसे राग कहा है क्योंकि वही अनन्त संसारका कारण है । उसके जानेपर रहनेवाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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