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धर्मामृत ( अनगार) चारित्रमोहनीयजन्य राग अनन्त संसारका कारण नहीं है अतः तज्जन्य बन्धको भी बन्ध नहीं कहा है। अतः सम्यग्दष्टि चारित्रमोहजन्य प्रवत्तियोंको ऐसा मानता है कि यह कर्मका उदय है इससे निवत्त होने मेरा हित है । उसको वह रोगके समान आगन्तुक मानता है । और उसको मेटने का उपाय करता है । सिद्धान्तमें मिथ्यात्वको ही पाप कहा है। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कहा है
न मिथ्यात्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि ।
श्रेयोऽश्रेयश्च सम्यक्त्वसमं नान्यत्तनुभृताम् ।। अर्थात् तीनों कालों और तीनों लोकोंमें प्राणियों का मिथ्यात्वके समान कोई अकल्याणकारी नहीं है और सम्यक्त्वके समान कोई कल्याणकारी नहीं है ।
अतः अध्यात्ममें जबतक मिथ्यात्व है तबतक शुभ क्रियाओंको भी पाप ही कहा है। किन्तु व्यवहारनयकी प्रधानतामें व्यवहारी जीवोंको अशुभसे छुड़ाकर शुभमें लगानेकी दृष्टि से पुण्य भी कहा है।
पं. आशाधरजीने आठवें अध्यायके प्रारम्भमें षडावश्यक क्रियाओंका कथन करनेसे पूर्व यह सब कथन किया है। और अन्त में मुमुक्षुसे कहलाया है कि जबतक इस प्रकारके भेदज्ञानके बलसे मैं कर्मोंका साक्षात् विनाश करनेवाली शुद्धात्म संवितिको प्राप्त नहीं होता तबतक मैं षडावश्यकरूप क्रियाको करता हूँ। इस तरह नीचेकी भूमिकामें ज्ञानधारा और कर्मधारा दोनों पृथक्-पृथक् रूपसे चला करती हैं। यदि ज्ञानधारा न हो और केवल कर्मधारा हो तो वह निष्फल है उससे संन्यास ग्रहणका उद्देश कभी पूरा नहीं हो सकता। हाँ, ज्ञानधाराके साथ भी कर्मधाराके होनेपर बन्ध तो होता ही है। किन्तु पुण्यबन्ध के साथ ही पापबन्धमें स्थिति अनुभागका ह्रास तो होता ही है पूर्वबद्ध कर्मोंकी निर्जरा भी होती है । यह सम्यक् आवश्यक विधिका फल है। शासनदेवता अवन्दनीय है आठवें अध्यायमें वन्दना नामक आवश्यकका वर्णन करते हुए आशाधरजीने कहा है
श्रावकेणापि पितरौ गुरू राजाप्यसंयताः ।
कुलिङ्गिनः कुदेवाश्च न वन्द्या: सोऽपिसंयतः ॥५२॥ श्रावकको भी वन्दना करते समय असंयमी माता-पिता, गुरु, राजा, कुलिंगी और कुदेवकी वन्दना नहीं करना चाहिए। इसकी टीकामें आशाधरजीने 'कुदेवा' का अर्थ रुद्र आदि और शासनदेवता आदि किया है। और लिखा है कि साधुकी तो बात ही दूर, श्रावकको भी इनकी वन्दना नहीं करना चाहिए।
आशाधरजीके पूर्वज टीकाकार ब्रह्मदेव जीने भी बृहद्रव्यसंग्रहकी टीकामें क्षेत्रपालको मिथ्यादेव लिखा है, यथा-'रागद्वेषोपहतार्तरौद्रपरिणतक्षेत्रपालचण्डिकादिमिथ्यादेवानां'-( टीका. गा. ४१ )
अतः शासनदेवों, क्षेत्रपाल, पद्मावती आदिको पूजना घोर मिथ्यात्व है । आजकलके कुछ दिगम्बरवेशी साधु और आचार्य अपने साथ पद्मावतीकी मूर्ति रखकर उसे पुजाते हैं और इस तरह मिथ्यात्वका प्रचार करते हैं और कुछ पण्डितगण भी उसमें सहयोग देते हैं, उनका समर्थन करते हैं। ऐसे ही साधुओं और पण्डितोंके लिए कहा है
'पण्डितैभ्रष्टचारित्रैर्वठरैश्च तपोधनैः ।
शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ चारित्रभ्रष्ट पण्डितों और ठग तपस्वियोंने जिनभगवान के निर्मल शासनको मलिन कर दिया ।
मठाधीशोंकी निन्दा
दूसरे अध्यायके श्लोक ९६ तथा उसकी टीकामें आशाधरजीने मिथ्यादष्टियों के साथ संसर्गका निषेध करते हए जटाधारी तथा शरीरमें भस्म रमानेवाले तापसियों के साथ द्रव्यजिनलिंगके धारी अजितेन्द्रिय
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