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धर्मामृत ( अनगार) होता है, ज्ञानधारासे ही मोक्ष होता है। समयसार कलश १११ के भावार्थमें पं. जयचन्दजी साहबने लिखा है
_ 'जो परमार्थभूत ज्ञानस्वभाव आत्माको तो जानते नहीं, और व्यवहार, दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप क्रियाकाण्डके आडम्बरको ही मोक्षका कारण जान उसी में तत्पर रहते हैं उसीका पक्षपात करते हैं वे कर्मनयावलम्बी संसार समुद्रमें डूबते हैं। और जो परमार्थभूत आत्मस्वरूपको यथार्थ तो जानते नहीं और मिथ्यादृष्टि सर्वथा एकान्तवादियोंके उपदेशसे अथवा स्वयं ही अपने अन्तरंगमें ज्ञानका मिथ्यास्वरूप कल्पना करके उसीका पक्षपात करते हैं तथा व्यवहार, दर्शन, ज्ञान, चारित्रके क्रियाकाण्डको निरर्थक जानकर छोड़ते हैं वे ज्ञाननयके पक्षपाती भी संसार समुद्र में डूबते हैं। किन्तु जो पक्षपातका अभिप्राय छोड़ निरन्तर ज्ञानरूप होते हुए कर्मकाण्डको छोड़ते हैं और जब ज्ञानरूपमें स्थिर रहने में असमर्थ होते हैं तब अशुभ कर्मको छोड़ आत्मस्वरूपके साधनरूप शुभ क्रियाकाण्ड में लगते हैं वे संसारसे निवृत्त हो लोकके ऊपर विराजमान होते हैं।'
अतः आचार्य जयसेनने समयसार गाथा २०४ की टीकामें लिखा है-जो शुद्धात्मानुभूतिसे शून्य व्रततपश्चरण आदि कायक्लेश करते हैं वे परमात्मपदको प्राप्त नहीं कर सकते । सिद्धान्तशास्त्रमें जिसे धर्मध्यान और शुक्लध्यान कहा है अध्यात्ममें उसे ही शुद्धात्मसंवित्ति कहा है।
किन्तु क्या शुद्धात्माकी संवित्ति सम्भव है ? और वह प्रत्यक्षरूप होती है क्या ? इसके उत्तरमें आचार्य जयसेनने संवराधिकारके अन्तमें कहा है
'यद्यपि रागादि विकल्परहित स्वसंवेदनरूप भावश्रुतज्ञान शुद्धनिश्चयनयसे केवलज्ञानकी तुलनामें परोक्ष है। तथापि इन्द्रिय और मनोजन्य सविकल्प ज्ञानकी अपेक्षा प्रत्यक्ष है । इससे आत्मा स्वसंवेदन ज्ञानकी अपेक्षा प्रत्यक्ष है। परन्तु केवलज्ञानकी अपेक्षा परोक्ष भी है। सर्वथा परोक्ष ही है ऐसा नहीं कह सकते । क्या चतुर्थकालमें भी केवली आत्माको हाथपर रखकर दिखाते थे ? वे भी दिव्यध्वनिके द्वारा कहते थे और श्रोता उसे सुनकर परोक्ष रूपसे उसका ग्रहण करते थे। पीछे वे परमसमाधिके समय प्रत्यक्ष करते थे। उसी प्रकार इस काल में भी सम्भव है। अतः जो कहते हैं कि परोक्ष आत्माका ध्यान कैसे होता है उनके लिए उक्त कथन किया है।'
समयसार गाथा ९६ के व्याख्यान में कहा है कि विकल्प करनेपर द्रव्यकर्मका बन्ध होता है। इसपर शंकाकार पूछता है
भगवन् ! ज्ञेयतत्त्वका विचाररूप विकल्प करनेपर यदि कर्मबन्ध होता है तो ज्ञेयतत्त्वका विचार व्यर्थ है, उसे नहीं करना चाहिए? इसके समाधानमें आचार्य कहते हैं-'ऐसा नहीं कहना चाहिए । जब साधु तीन गुप्तिरूप परिणत होता हुआ निर्विकल्प समाधिमें लीन है उस समय तत्त्वविचार नहीं करना चाहिए। तथापि उस ध्यानके अभावमें शुद्धात्माको उपादेय मानकर या आगमकी भाषामें मोक्षको उपादेय मानकर सराग सम्यक्त्वकी दशामें विषयकषायसे बचने के लिए तत्त्वविचार करना चाहिए । उस तत्त्वविचारसे मुख्य रूपसे तो पुण्यबन्ध होता है और परम्परासे निर्वाण होता है अतः कोई दोष नहीं है। किन्तु उस तत्त्वविचारके समय वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानरूप परिणत शुद्धात्मा ही साक्षात् उपादेय है ऐसा ध्यान रखना चाहिए'। इसपर-से शंकाकार पुनः शंका करता है--
१. 'मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति ये.
मग्ना शाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः । विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं ये कर्मापि न कुर्वते न च वशं यान्ति प्रमादस्य च ॥११॥
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