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धर्मामृत (अनगार) व्यवहारनयका अर्थ पं. आशाधरजी-ने अशुद्ध द्रव्याथिक लिया है। जो विधिपूर्वक विभाग करता है वह व्यवहारनय है । अर्थात् गुण और गुणीमें भेद करना व्यवहारनय है। जैसे आत्मा और रत्नत्रयमें भेद बुद्धि व्यवहारनय है। शुद्ध द्रव्याथिककी दृष्टि में ये तीनों आत्मस्वरूप ही होते हैं। अतः निश्चयनयसे उन तीनोंसे समाहित अर्थात् रत्नत्रयात्मक आत्मा ही मोक्षका मार्ग है । पंचास्तिकायमें कहा है
घम्मादीसहहणं सम्मत्तं णाणमंगपुवगदं ।
चेट्रा तवम्हि चरिया ववहारो मोक्खमग्गोत्ति ॥१६॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र मोक्षका मार्ग है। उनमें से द्रव्यके भेद धर्मादि और पदार्थके भेद तत्त्वार्थोके श्रद्धानरूप भावको सम्यग्दर्शन कहते हैं। तथा तत्त्वार्थश्रद्धानके सद्भावमें अंग और पूर्वगत पदार्थोंका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । और आचारांग आदि सूत्रोंमें जो मुनिके आचारोंका समुदायरूप तप कहा है उसमें प्रवृत्ति सम्यक् चारित्र है। यह व्यवहारनयकी अपेक्षा मोक्षमार्ग है। ( जिसमें साध्य और साधनमें भेद दृष्टि होती है और जो स्वपर हेतुक पर्यायके आश्रित है वह व्यवहारनय है ) उस व्यवहारनय या अशुद्ध द्रव्याथिकनयसे यह मोक्षमार्ग है। इसका अवलम्बन लेकर जोव ऊपरकी भूमिकामें आरोहण करता हुआ स्वयं रत्नत्रयरूप परिणमन करते हुए भिन्न साध्य-साधन भावका अभाव होनेसे स्वयं शुद्ध स्वभावरूप परिणमन करता है और इस तरह वह निश्चय मोक्षमार्गके साधनपनेको प्राप्त होता है । यथा
णिच्छयणयेण भणिदो तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा ।
ण कुणदि किंच वि अण्णं ण मयदि सो मोक्खमग्गोत्ति ॥१६॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे समाहित आत्मा ही निश्चयसे मोक्षमार्ग है।
इस व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्गमें साध्य-साधनभावको स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रजीने कहा है कि कोई जीव अनादि अज्ञानके हटनेसे व्यवहार मोक्षमार्गको धारण करता है तो वह तत्त्वार्थका अश्रद्धान, अंगपूर्वगत अर्थका अज्ञान और तपमें अचेष्टाको त्यागकर तत्त्वार्थ श्रद्धान, अंगपूर्वगत अर्थके ज्ञान और तपमें चेष्टा रूप व्यवहार रत्नत्रयको अपनाता है। कदाचित् त्यागने योग्यका ग्रहण और ग्रहण करने योग्यका त्याग हो जाता है तो उसका प्रतीकार करके सुधार करता है। इस तरह व्यवहार अर्थात् भेद रत्नत्रयकी आराधना करते-करते एक दिन वह स्वयं त्याग और ग्रहणके विकल्पसे शून्य होकर स्वयं रत्नत्रय रूप परिणत होकर निश्चय मोक्षमार्ग रूप हो जाता है।
जबतक साध्य और साधनमें भेददृष्टि है तबतक व्यवहारनय है और जब आत्मा आत्माको आत्मासे जानता है, देखता है, आचरता है तब आत्मा ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र होनेसे अभेद दृष्टिरूप निश्चयनय है। आशाधरजीने व्यवहार और निश्चयका यही लक्षण किया है
कर्ताद्या वस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसिद्धये ।
साध्यन्ते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेददृक् ।।१-१०२ । जिसके द्वारा निश्चयकी सिद्धि के लिए कर्ता-कर्म-करण आदि कारक वस्तु-जीवादिसे भिन्न जाने जाते हैं वह व्यवहारनय है । और कर्ता आदिको जीवसे अभिन्न देखनेवाला निश्चयनय है।
इससे स्पष्ट है कि निश्चयकी सिद्धि ही व्यवहारका प्रयोजन है। उसके बिना व्यवहार भी व्यवहार कहे जानेका अपात्र है। ऐसा व्यवहार ही निश्चयका साधक होता है । निश्चयको जाने बिना किया गया व्यवहार निश्चयका साधक न होनेसे व्यवहार भी नहीं है । आशाधरजीने एक दृष्टान्त दिया है। जैसे नट रस्सीपर चलने के लिए बाँसका सहारा लेता है और जब उसमें अभ्यस्त हो जाता है तो बाँसका सहारा छोड़ देता है उसी प्रकार निश्चयकी सिद्धिके लिए व्यवहारका अवलम्बन लेना होता है किन्तु उसकी सिद्धि होनेपर व्यवहार स्वतः छुट जाता है। व्यवहारके बिना निश्चयकी सिद्धि सम्भव नहीं है किन्तु व्यवहारका लक्ष्य
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