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. प्रस्तावना
नहीं जानता और न जानना ही चाहता है । मुनीश्वर अज्ञानीको समझानेके लिए अभूतार्थका उपदेश देते हैं। जो केवल व्यवहारको ही जानता है वह उपदेशका पात्र नहीं है। जैसे जो शेरको नहीं जानता उसे समझानेके लिए बिलावके समान सिंह होता है ऐसा कहनेपर वह बिलावको ही सिंह मानता है। उसी प्रकार निश्चयको न जाननेवाला व्यवहारको ही निश्चय मानता है। यह कथन यथार्थ है। अज्ञानी ही नहीं ज्ञानी पुरुष भी व्यवहारको ही निश्चय मानकर बैठ जाते हैं ।
पं. आशाधरजी इस रहस्यसे अभिज्ञ थे। अतः उन्होंने अनगार धर्मामतके प्रारम्भमें निश्चय और व्यवहारका स्वरूप तथा उसके भेदोंका स्वरूप कहा है। तथा अन्यत्र भी यथास्थान निश्चयधर्म और व्यवहार धर्मको स्पष्ट किया है।
निश्चय रत्नत्रयका स्वरूप बतलाते हुए उन्होंने लिखा है (११९१ ) जिसका निश्चय किया जाता है उसे अर्थ कहते हैं । अर्थसे अभिप्राय है वस्तु । विपरीत या प्रमाणसे बाधित अर्थ मिथ्या होता है। उस सर्वथा एकान्तरूप मिथ्या अर्थके आग्रहको मिथ्यार्थ अभिनिवेश कहते हैं। उससे शून्य अर्थात् रहित जो आत्मरूप है वह निश्चय सम्यग्दर्शन है। अथवा जिसके कारण मिथ्या अर्थका आग्रह होता है वह भी मिथ्यार्थ अभिनिवेश कहाता है। वह है दर्शनमोहनीय कर्म, उससे रहित जो आत्मरूप है वह निश्चय सम्यग्दर्शन है। अर्थात् दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे विशिष्ट आत्मरूप निश्चय सम्यग्दर्शन है। इस सम्यग्दर्शनके होनेपर ही अनादि संसार सान्त हो जाता है।
तत्त्वरुचिको जो सम्यक्त्व कहा है वह उपचारसे कहा है। क्योंकि यदि तत्त्वरुचिको सम्यक्त्व कहा जायेगा तो क्षीणमोह आदि गुणस्थानोंमें सम्यक्त्वका अभाव प्राप्त होगा क्योंकि वहाँ रुचि नहीं है। रुचि तो मोहकी दशामें होती है ।
यह सम्यक्त्व तत्त्वश्रद्धाके बिना नहीं होता। और तत्त्वश्रद्धा तत्त्वोपदेशके बिना नहीं होती। अतः जीव अजीव आदि तत्त्वोंका परिज्ञानपूर्वक श्रद्धान सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके लिए अत्यन्त आवश्यक है। उसके बिना चारित्र धारण करनेपर भी सम्यक्त्व प्रकट नहीं हो सकता। और चारित्रके बिना तत्त्व श्रद्धा मात्रसे सम्यक्त्व प्रकट हो सकता है । सम्यक्त्वपूर्वक चारित्र ही सम्यकचारित्र होता है। सम्यक्त्वके बिना मुनिव्रत भी मिथ्याचारित्र कहलाता है। तभी तो कहा है
मुनिव्रतधार अनन्तवार ग्रेवेयक उपजायो।
पै निज आतम ज्ञान विना सुखलेश न पायो॥-छहढाला। अतः संसारका अन्त करनेके लिए आत्मपरिज्ञान अत्यन्त आवश्यक है । आत्मज्ञानको ओरसे उदासीन रहकर चारित्र धारण करनेसे कोई लाभ नहीं है। अतः सबसे प्रथम सम्यक्त्वकी प्राप्तिके लिए ही प्रयत्न करना चाहिए। कहा है
तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन ।
तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रं च ॥२१॥-पुरुषार्थसि. 'उस रत्नत्रयमें-से सर्वप्रथम समस्त प्रयत्नपर्वक सम्यक्त्वको सम्यक रूपसे प्राप्त करना चाहिए। क्योंकि उसके होनेपर ही सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र होता है।'
तथा संशय, विपर्यय और अज्ञानसे रहित यथार्थ परिज्ञानरूप निश्चय सम्यग्ज्ञान है। वह भी आत्मस्वरूप है । और आत्माका अत्यन्त उदासीनरूप निश्चय सम्यक्चारित्र है जो समस्त कषायोंके और ज्ञानावरण आदि कर्मोके अभावमें प्रकट होता है। ये तीनों जब पूर्ण अवस्थाको प्राप्त होते हैं तो मोक्षके ही मार्ग होते है । तथा व्यवहाररूप अपूर्ण रत्नत्रय अशुभकर्म पुण्य पाप दोनोंका संवर और निर्जरा करता है । जीवादितत्त्व विषयक श्रद्धानको व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं । उनके ज्ञानको व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहते हैं और मन, वचन, कायको त कारित अनुमोदनासे हिंसादिका त्याग व्यवहार सम्यक्चारित्र है। ...
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