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चतुर्थ अध्याय
२६९ शून्यं-निर्जनं गुहागेहादि । पदं स्थानम् । विमोचितं-परचक्रादिनोद्वासितम् । भैक्षशुद्धिमनुभिक्षाणां समूहो भिक्षाया आगतं वा भैक्षं तस्य शुद्धिः पिण्डशुद्धयु क्तदोषपरिहारस्तां प्रति । यस्येत्-प्रयतेत । न विसंवदेत्-तवेदं वस्तु न ममेति विसंवादं सार्मिकैः सह न कुर्यादित्यर्थः । उपरुन्ध्यात्- ३ संकोचयेत् ॥५६॥ अथास्तेयव्रतस्य भावनाः प्रकारान्तरेण व्याचष्टे
योग्यं गृह्णन् स्वाम्यनुज्ञातमस्यन् सक्ति तत्र प्रत्तमप्यर्थवत्तत् ।
गृह्णन् भोज्येऽप्यस्तग?पसङ्गः स्वाङ्गालोची स्यान्निरीहः परस्वे ॥७॥ योग्यं-ज्ञानाद्युपकरणम् । स्वाम्यनुज्ञातं-तत्स्वामिना 'गृहाण' इत्यनुमतम् । एतेनाचारशास्त्रमार्गेण योग्ययाचनं ततस्तत्स्वाम्यनुज्ञातात् ग्रहणं चेति भावनाद्वयं संगृहीतं बोद्धव्यम् । या तु गोचरादिषु गृहस्वाम्यननु- ९ ज्ञात(-गृहप्रवेशवर्जन-)लक्षणा भावना साऽत्रैवान्तर्भवत्यननुज्ञातानभ्युपगमाविशेषात् । तत्र पर(-नुज्ञां संपाद्य-) गृहीतेऽप्यासक्तबुद्धितेति । सैषा चतुर्थी । अर्थवत्-सप्रयोजनम् । पनत्प....ण...( एतत्परिमाणमिदं भवता दातव्य-) मिति सप्रयोजनमात्रपरिग्रहो न पुनीता यावद् ददाति तावद् गृह्णाति (-णामीति) बुद्धिरि- १२
विशेषार्थ-श्वेताम्बर सम्मत तत्त्वार्थाधिगम भाषामें पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं
नुवीच्यवग्रहयाचन-आलोचनापूर्वक अवग्रहकी याचना करना चाहिए। देवेन्द्र, राजा, गृहपपि, शय्यातर और साधर्मी, इनमें से जो जहाँ स्वामी हो उसीसे याचना करनी चाहिए । ऐसा करनेसे अदत्तादान नहीं होता। २. अभीक्ष्ण अवग्रहयाचन-पहले बारम्बार परिग्रह प्राप्त करके भी रुग्ण आदि अवस्थामें टट्टी-पेशाबके लिए पात्र, हाथ-पैर धोनेके लिए स्थान आदिकी याचना करनी चाहिए। इससे दाताके चित्तको कष्ट नहीं होता। ३. एतावत् इति अवग्रहावधारण-इतने परिमाणवाला ही क्षेत्र अवग्रह करना। उसीमें क्रिया करनेसे दाता रोकता नहीं है। ४. समान धार्मिकोंसे अवग्रहयाचन-समानधर्मी साधुओंके द्वारा पहलेसे परिगृहीत क्षेत्र में से अवग्रह माँगना चाहिए । उनकी आज्ञा मिलनेपर ही वहाँ ठहरना चाहिए अन्यथा चोरीका दोष लगता है। ५. अनुज्ञापित पान भोजन-शास्त्रकी विधिके अनुसार पान-भोजन करना। अर्थात् पिण्डैषणाके उपयुक्त, कृत कारित अनुमोदनासे रहित, कल्पनीय भोजन लाकर गुरुकी अनुज्ञापूर्वक सबके साथ या एकाकी जीमना । प्रश्न व्याकरण सूत्रके अनुसार पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं-१. विविक्तवसतिवास, २. अनुज्ञातसंस्तारकग्रहण, ३. शय्यापरिकर्मवर्जन, ४. अनुज्ञातभक्तादिभोजन और ५. साधर्मिकोंमें विनय । अर्थात् सभी वस्तुएँ उसके स्वामियोंकी और गुरु आदिकी अनुज्ञापूर्वक ही ग्राह्य हैं ॥५६॥
अचौर्य व्रतकी भावनाओंको दूसरे प्रकारसे कहते हैं___ योग्यको ग्रहण करनेवाला, स्वामीके द्वारा अनुज्ञातको ग्रहण करनेवाला, गृहीतमें भी आसक्तिको छोड़नेवाला तथा दिये हुएमें-से भी प्रयोजन मात्रको ग्रहण करनेवाला साधु परवस्तुमें सर्वथा निरीह होता है। तथा भोजन-पानमें और अपिशब्दसे शरीर में गृद्धिको त्यागनेवाला, परिग्रहसे दूर रहनेवाला और शरीर तथा आत्माके भेदको जाननेवाला साधु परवस्तुमें निरीह होता है ।।५७॥
१. भ. कु. च.। २. भ. कु. च. । मूलप्रतौ स्थानं रिक्तम्
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