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धर्मामृत (अनगार) शेचीश-धात्रीश-गहेश-देवता सधर्मणां धर्मकृतेऽस्ति वस्तु यत् ।
ततस्तदादाय यथागमं चरन्नचौर्यचुञ्चुः श्रियमेति शाश्वतीम् ॥५५॥ शचीश:-इन्द्रः । इह हि किल पूर्वादिदिक्षु पूर्वस्या अधिपः सौधर्मेन्द्रः, उत्तरस्याश्चैशानेन्द्रः । धात्रीश:-भूपतिः । गृहेश:-वसतिस्वामी । देवता-क्षेत्राधिष्ठितो भूतादिः ॥५५॥
अथ शून्यागार-विमोचितावास-परोपरोधाकरण-भक्ष्यशुद्धि-सधर्माविसंवादलक्षण-भावनापञ्चकेन स्थैर्यार्थ६ मचौर्यव्रतं भावयेदित्युपदिशति
'शून्यं पदं विमोचितमुतावसेभेक्षशुद्धिमनु यस्येत् ।
न विसंवदेत्सधर्मभिरुपन्ध्यान्न परमप्यचौर्यपरः॥५६॥ इन्द्र, राजा, वसतिका स्वामी, गृहपति, क्षेत्रका अधिष्ठाता, देवता और अपने संघके साधुओंकी जो वस्तु धर्मका साधन हो उसे उनसे लेकर आगमके अनुसार आचरण करनेवाला अचौर्यव्रती साधु अविनाशिनी लक्ष्मीको प्राप्त करता है ॥५५॥
विशेषार्थ-धर्मसंग्रह (श्वे.) की टीकामें अदत्तके चार भेद किये हैं-स्वामीके द्वारा अदत्त, जीवके द्वारा अदत्त, तीर्थंकरके द्वारा अदत्त और गुरुके द्वारा अदत्त। जो स्वामीके द्वारा नहीं दिया गया वह पहला अदत्त है जैसे तृण, काष्ठ वगैरह । जो स्वामीके द्वारा दिया गया भी जीवके द्वारा न दिया गया हो वह दूसरा अदत्त है जैसे पुत्रकी इच्छाके बिना मातापिताके द्वारा अपना पुत्र गुरुको अर्पित करना । तीर्थकरके द्वारा निषिद्ध वस्तुको ग्रहण करना तीसरा अदत्त है । और स्वामीके द्वारा दिये जानेपर भी गुरुकी अनुज्ञाके बिना लेना चौथा अदत्त है । चारों ही प्रकारका अदत्त साधु के लिए त्याज्य है । दशवैकालिकमें कहा है
- 'संयमी मुनि सचित्त या अचित्त, अल्प या बहुत, दन्तशोधन मात्र वस्तु का भी उसके स्वामीकी आज्ञाके बिना स्वयं ग्रहण नहीं करता, दूसरोंसे ग्रहण नहीं कराता, और अन्य ग्रहण करनेवालेका अनुमोदन भी नहीं करता' ॥५५॥
आगे स्थिरताके लिए पाँच भावनाओं के द्वारा अचौर्य व्रतके भावनका उपदेश देते हैं
अचौर्यव्रती साधुको निर्जन गुफा वगैरहमें अथवा दूसरोंके द्वारा छोड़े गये स्थानमें बसना चाहिए । भिक्षाओंके समूहको अथवा भिक्षामें प्राप्त द्रव्यको भैक्ष कहते हैं उसकी शुद्धिके लिए सावधान रहना चाहिए अर्थात् पिण्डशुद्धि नामक अधिकारमें आगे कहे गये दोषोंसे बचना चाहिए । साधर्मीजनोंके साथमें 'यह मेरा है' यह तेरा है' इस तरहका झगड़ा नहीं करना चाहिए । तथा अन्य श्रावक वगैरहको अभ्यर्थनासे रोकना नहीं चाहिए ॥५६॥
'सुण्णायारणिवासो विमोचियावास जंपरोधं च । एसण सुद्धिसउत्तं साहम्मीसु विसंवादो'।-चारित्र पाहड, ३४ गा. शन्यागारविमोचितावास-परोपरोधाकरणं भैक्षशुद्धिसद्धर्माविसंवादाः पञ्च ॥-त. सू.७।६ अस्तेयस्यानुवीच्यवग्रहयाचनमभीक्ष्णाव ग्रहयाचनमेतावदित्यवग्रहावधारणं समानधामिकेभ्योऽवग्रहयाचनं
अनुज्ञापितपानभोजनमिति ।-त. भाष्य ७१३ २. 'चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा वहं ।
दंतसोहणमेत्तं पि ओग्गहंसि अजाइया । तं अप्पणा ण गेण्हति नो वि गेण्हावए परं। अन्नं वा गेण्हमाणं पि नाण जाणंति संजया' ॥-अ. ६, श्लो. १३-१४
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