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चतुर्थ अध्याय
अथ ज्ञानसंयमादिसाधनं विधिना दत्तं गृह्णीयादित्यनुशास्तिवसति विकृतिबहं वृसी पुस्तककुण्डीपुरःसरं श्रमणैः । श्रामण्यसाधनमवग्रहविधिना ग्राह्यमिन्द्रादेः ॥५४॥
विकृतिः - गोमयदग्धमृत्तिकादिः । वृसी - व्रतिनामासनम् । अवग्रहविधिना — स्वीकर्तव्य विधानेन । इन्द्रादेः । उक्तं च
देवदिराय गहवइदेवद साहम्मि उग्गहं तम्हा |
उग्गह विहिणा दिन्नं गिण्हसु सामण्णसाहणयं ॥ ५४ ॥ [भ. आ. ८७६ गा. ] अथ विधिदत्तं गृहीत्वा यथोक्तं चरतः समीहितमभिधत्तं -
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चाहिए । देशकी नैतिकताकी यह भी एक कसौटी है कि मनुष्यको अपनी वस्तु उसी स्थान - पर मिल जाये जहाँ वह छोड़ गया था या भूल गया था । हाँ, यदि उस तक पहुँचाने के उद्देश्यसे उसे उठाया जाता है तो वह चोरी नहीं है। चोरी को गुण आदिका 'मर्माविधू' कहा है । मर्मस्थानके छिदने पर प्राणीका तत्काल मरण होता है । उसी तरह चोरी करनेपर व्यक्ति सब गुण, विद्या, यश वगैरह तत्काल नष्ट हो जाते हैं। वह मनुष्य स्वयं अपनी ही दृष्टिमें गिर जाता है । अन्य लोग भले ही उसके मुँहपर कुछ न कहें किन्तु उनकी दृष्टि भी बदल जाती है ॥ ५३ ॥
आगे कहते हैं कि साधुको ज्ञान-संयम आदिके साधन भी विधिपूर्वक दिये जानेपर ही स्वीकार करना चाहिए
तपस्वी श्रमणको मुनिधर्मके साधन आश्रय, मिट्टी, राख, पिच्छिका, व्रतियों के योग्य आसन और कमण्डलु वगेरह इन्द्र-नरेन्द्र आदि से ग्रहण करने की विधिपूर्वक ही ग्रहण करना चाहिए || ५४ ||
विशेषार्थ - यह ग्रन्थ साधु धर्मसे सम्बद्ध है । जैन साधुका प्राचीन नाम श्रमण है । उन्हींके प्रसंगसे यहाँ अदत्तादान विरमण महाव्रतका कथन किया गया है । साधुका वेश धरकर तो चोर चोरी करते हैं । किन्तु सच्चा साधु बिना दी हुई वस्तुको ग्रहण नहीं करता । उसकी आवश्यकताएँ बहुत सीमित होती हैं । शरीरसे वह नग्न रहता है अतः वस्त्र सम्बन्धी किसी वस्तुकी उसे आवश्यकता नहीं होती । भोजन श्रावकके घर जाकर करता है अतः भोजन सम्बन्धी भी किसी वस्तुकी आवश्यकता नहीं होती । सिर वगैरह के बाल अपने हाथसे उखाड़ लेता है अतः उस सम्बन्धी भी किसी वस्तुकी आवश्यकता नहीं होती । जब साधु वनोंमें रहते थे तब निवासस्थान वसतिकी भी तभी आवश्यकता होती थी जब नगर में ठहरते थे । वसतिके सिवाय हाथ माँजनेके लिए मिट्टी, राख वगैरह, जीव जन्तुकी रक्षा लिए पिच्छिका, बैठनेके लिए आसन, स्वाध्याय के लिए शास्त्र और शौच के लिए कमण्डलु आवश्यक होता है । ये भी बिना दिये नहीं लेना चाहिए । तथा देनेवाला यदि इन्द्र और राजा भी हो तब भी स्वीकार करनेकी विधिपूर्वक ही स्वीकार करना चाहिए। अर्थात् किसीके प्रभाव में आकर बिना विधिके दी हुई वस्तु भी स्वीकार नहीं करनी चाहिए ॥ ५४ ॥ आगे कहते हैं कि विधिपूर्वक दिये हुए संयम के साधनों को ग्रहण करके यथोक्त संयमका पालन करनेवाले साधुके ही इष्टकी सिद्धि होती है—
१. धिवद्दत्तं भ. कु. च । २. तसिद्धिम भ. कु. च. ।
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