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चतुर्थ अध्याय
'अंडे पवता गब्भट्ठा माणुसा य मुच्छगया ।
जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया ॥' [ पञ्चास्ति. ११३ गा. ]
ते च पञ्चतयेऽपि सूक्ष्माः सर्वत्र सन्ति । स्थूलास्त्विमे -
मृत्तिका बालिका चैव शर्करा चोपलः शिला ।
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लवणादयस्तथा ताम्रं त्रपुंषा (त्रपुसीसकमेव च ॥' [ तत्त्वार्थसार ५१] मणिविद्रुमवर्णः । शर्करोपलशिलावज्रप्रवालवर्जिताः शुद्धपृथिवीविकाराः । शेषाः खरपृथ्वी विकाराः । एतेष्वेव पृथिव्यष्टकमेर्वादिरौला द्वीपा विमानानि भवनानि वेदिका प्रतिमा तोरणस्तुपचत्यवृक्ष जम्बूशाल्मलीघातक्यो रत्नाकरादयश्चान्तर्भवन्ति । अवश्यायो रात्रिपश्चिमप्रहरे निरभ्राकाशात् पतितं सूक्ष्मोदकम् । महिका 'अवश्यायो हिमं चैव महिका बिन्दुशीकराः । शुद्धं घनोदकं बिन्दुर्जीवा रक्ष्यास्तथैव ते ॥' [
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घूमाकारजलं कुहडरूपं धूमरीत्यर्थः । बिन्दु : ( स्थूल - ) बिन्दुजलम् । शीकरः सूक्ष्म बिन्दुजलम् । शुद्धं चन्द्रकान्तजलं सद्यःपतितजलं वा । घनोदकं समुद्रहृदघनवाताद्युद्भवम् । च शब्देन वापीनिर्झरादिजलं करका १२
अपि गृह्यन्ते ।
जो जीव एक स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा केवल स्पर्शको जानते हैं वे एकेन्द्रिय हैं । पृथिवी - कायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये पाँच स्थावर एकेन्द्रिय जीव हैं । इन जीवोंमें यद्यपि बुद्धिपूर्वक व्यापार नहीं देखा जाता है फिर भी जैसे अण्डे में सजीवका निश्चय किया जाता है उसी तरह इनमें भी जीवका निश्चय किया जाता है । कहा भी है- 'अण्डावस्था में, गर्भावस्था में तथा मूच्छित अवस्थामें बुद्धिपूर्वक व्यापार न देखने पर जिस प्रकार जीवपनेका निश्चय किया जाता है उसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवोंका भी निश्चय किया जाता है ।' ये पाँचों स्थावर जीव सूक्ष्म भी होते हैं और स्थूल भी होते हैं । सूक्ष्म तो सर्वत्र पाये जाते हैं । स्थूल जीव इस प्रकार हैं – मिट्टी, बालिका - रुक्ष अंगार आदि से उत्पन्न हुई बालुका, शर्करा - कठोरवत्री, गोल पाषाण, बड़ा पाषाण, लवण, लोहा, ताँबा, राँगा, सीसा, चाँदी, सोना, हीरा, हरिताल, ईंगुर, मेनसिल, तूतिया, सुरमा, मँगा, अभ्रकका चूरा, बड़ी-बड़ी मणियोंके टुकड़े, गोमेद, रुजक - अलसीके फूलकी रंगकी लांजावर्तमणि, अंक — लाल रंग की पुलिकमणि, स्फटिक, पद्मरागमणि, वैडूर्य, चन्द्रकान्त, जलकान्त, सूर्यकान्त, गैरिक — लालमणि, चन्दनके समान रंगवाली मणि, मरकतमणि, पुष्परागमणि, नीलमणि, लाल रंग की पाषाणमणि इन सब पृथिवीकायिक जीवोंकी रक्षा यतियोंको करनी चाहिए। इनमें से शर्करा, गोल पाषाण, बड़ा पाषाण, हीरा, मूँगा ये तो खर पृथ्वी के विकार हैं शेष शुद्ध पृथिवी विकार हैं। इनमें ही आठ पृथिवियाँ (सात नरकभूमियाँ एक सिद्धशिला), मेरु आदि पर्वत, द्वीप, विमान, भवन, वेदिका, प्रतिमा, तोरण, स्तूप, चैत्यवृक्ष, जम्बूवृक्ष, शाल्मलिवृक्ष, धातकीवृक्ष और रत्नाकर आदिका अन्तर्भाव होता है ।
ओस, बर्फ, कोहरा, जलकी बड़ी बूँद, जलकी सूक्ष्म बिन्दु, चन्द्रकान्तसे झरता हुआ या तत्काल गिरा जल, समुद्र-तालाब आदिसे वायुके द्वारा उठाया गया जल, च शब्दसे वापी-झरनेका जल जलकायिक जीवरूप है । इनकी भी रक्षा करनी चाहिए ।
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१. 'त्र' इत्यतोऽग्रे मणिविद्रुमपूर्वपर्यन्तं बहुपाठः प्रतो नास्ति भव्य कु. च. टीकानुसारेण लिखितम् । २. 'अवश्यायो हिमबिन्दुस्तथा शुद्धघनोदके । पूतिकाद्याश्च विज्ञेया जीवाः सलिलकायिकाः । - तत्त्वार्थसार ६३ । ३. उत्तराध्ययन सूत्र ३६।७०-१०० में भी जीवके इन्हीं सब भेदोंको कहा है।
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