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________________ २३० ६ 1 ३ अचिः प्रदीपशिखाद्यग्नि ( - द्यग्रम् ) । मुर्मुरः कारीषोऽग्निः । शुद्धः वज्रविद्युत्सूर्यकान्ताद्युद्भवोऽग्निः सद्यः पातितो वा । अनल: सामान्योऽग्निर्धूमादिसहितः । च शब्देन स्फुलिङ्गवाडवाग्निनन्दीश्वरभूमैनुण्डिकामुकुटानलादयो गृह्यन्ते । धर्मामृत (अनगार ) 'ज्वालाङ्गारस्तथाचिश्च मुर्मुरः शुद्ध एव च । अनलश्चापि ते तेजोजीवा रक्ष्यास्तथैव च ॥' [ 'वात उद्भ्रमकश्चान्य उत्कलिर्मण्डलिस्तथा । महान् घनस्तनुर्गुञ्जास्ते पाल्याः पवनाङ्गिनः । [ वातः सामान्यरूपः । उद्भ्रमः यो भ्रभन्नुध्वं गच्छति । उत्कलिः लहरीवातः । मण्डलिः यः पृथिवी९ लग्नो भ्रमन् गच्छति । महान् महावातो वृक्षादिमोटकः । घनः घनोदधिर्धन निलयः तनुः तनुवातो व्यञ्जनादिकृतः । गुञ्जः उदरस्थाः पञ्चवाताः । लोकप्रच्छादक भवनविमानाधारादिवाता अत्रैवान्तर्भवन्ति । ज्वाला, अंगार, दीपककी लौ, कण्डेकी आग, वज्र, बिजली या सूर्यकान्तमणिसे उत्पन्न हुई अग्नि, सामान्य आग जिसमें से धुआँ निकलता हो, च शब्दसे स्फुलिंग, समुद्रकी बड़वानल, नन्दीश्वरके धूमकुण्ड और अग्निकुमारोंके मुकुटोंसे निकली आग ये सब तैजस्कायिक जीव हैं । इनकी भी उसी प्रकार रक्षा करनी चाहिए । सामान्य वायु, जमीन से उठकर घूमते हुए ऊपर जानेवाली वायु, लहरीरूप वायु जो पृथ्वीसे लगते हुए घूमती है, महावायु जो वृक्षोंको उखाड़ देती है, घनोदधिवायु, तनुवायु, उदरस्थवायु ये सब वायुकायिक जीव हैं । इनकी भी रक्षा करनी चाहिए । I मूलसे उत्पन्न होनेवाली वनस्पति जैसे हल्दी, अर्द्रक वगैरह । अग्रसे उत्पन्न होनेवाली वनस्पति जैसे बेला, अपामार्ग आदि । पर्वसे उत्पन्न होनेवाली वनस्पति ईख, बेंत वगैरह । कन्दसे उत्पन्न होनेवाली वनस्पति जैसे आलू वगैरह । स्कन्धसे उत्पन्न होनेवाली वनस्पति जैसे देवदारु, सई आदि । बीजसे उत्पन्न होनेवाली वनस्पति गेहूँ, जौ आदि । मूल आदिके बिना भी जो वनस्पति अपने योग्य पुद्गल आदि उपादान कारणसे उत्पन्न होती है वह सम्मूच्छिम है । देखा जाता है कि सींगसे सार और गोबरसे कमलकी जड़ बीजके बिना उत्पन्न होती है | अतः वनस्पति जाति दो प्रकारकी है- एक बीजसे उत्पन्न होनेवाली और एक सम्मूच्छिम । जिन जीवोंका एक ही साधारण शरीर होता है उन्हें अनन्तकाय या साधारणशरीर कहते हैं जैसे गुडूची, स्नुही आदि । या अनन्त निगोदिया जीवोंके आश्रित होनेसे जिनकी काय अनन्त है वे अनन्तकाय हैं अर्थात् सप्रतिष्ठित प्रत्येक जैसे मूली वगैरह । कहा है 'यतः एक भी अनन्तकाय वनस्पतिका घात करनेकी इच्छावाला पुरुष अनन्त जीवोंका घात करता है अतः सम्पूर्ण अनन्तकाय वनस्पतियोंका त्याग अवश्य करना चाहिए ।' १. 'ज्वालाङ्गारास्तथाचिश्च मुर्मुरः शुद्ध एव च । अग्निश्चेत्यादिका ज्ञेया जीवा ज्वलनकायिकाः ॥' — तत्त्वार्थ. ६४ । Jain Education International २. - रधूमकुण्डि - भ. कु. च. ३. महान् घनतनुश्चैव गुञ्जामण्डलिरुत्कलिः । वातश्चेत्यादयो ज्ञेया जीवाः पवनकायिकाः ॥ - तत्त्वार्थ. ६५ । ४. एकमपि प्रजिघांसुनिहन्त्यनन्तान्यतस्ततोऽवश्यम् । करणीयमशेषाणां परिहणमनन्तकायानाम् ॥ - पुरुषार्थ सि. १६२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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