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धर्मामृत (अनगार )
कुन्थुः पिपीलिका गोभी यूका - मत्कुणवृश्चिका: । मर्कोटकेन्द्रगोपाद्यास्त्रीन्द्रियाः सन्ति देहिनः ॥ पतङ्गा मशका दंशा मक्षिकाकीटगतः । पुत्रिका चञ्चरीकाद्यारचतुरक्षाः शरीरिणः । नारका मानवा देवास्तियंञ्चश्च चतुर्विधाः ।
सामान्येन विशेषेण पञ्चाक्षा बहुधा स्थिताः ॥' [ अमित पञ्चसं. १९४७-१५० ]
द्रव्येन्द्रियाकारा यथा—
'यवनाल-मसूरातिमुक्तकेन्द्वर्द्धसन्निभाः ।
श्रोत्राक्षिघ्राणजिह्वाः स्युः स्पर्शनेऽनेकधाकृतिः ॥ [ अमि. पं. सं. ११४३ ]
त्रसक्षेत्रं यथा -
'जैववाद मारणंतियजिणक्कवाडादिरहियसेसतसा ।
तसनाडि बाहिरम्हि य णत्थि त्ति जिणेहि णिद्दिट्ठ ॥' [
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स्पर्शनेनैकेन स्पर्शं जानन्तः एकेन्द्रियाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः पञ्च स्थावराः । तेषां च बुद्धिपूर्वव्यापारादर्शनेऽप्यण्डान्त लनादित्रसवज्जीवत्वं निश्चीयते । तदुक्तम् —
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'शम्बूक, मातृवाह, शंख, सीप, बिना पैर के कीड़े ये दो-इन्द्रिय जीव रस और स्पर्शको जानते हैं। जूँ, गुम्मी, खटमल, चिउँटी, बिच्छू आदि तेइन्द्रिय जीव स्पर्श-रस- गन्धको जानते हैं । डाँस, मच्छर, मक्खी, भौंरा, मधुमक्खी, पतंगा आदि चौइन्द्रिय जीव स्पर्श, रस, गन्ध और रूपको जानते हैं । देव, मनुष्य, नारकी, जलचर, थलचर और नभचर पशु-पक्षी ये पंचेन्द्रिय जीव स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्दको जानते हैं ॥२२॥
त्रस जीवोंका निवासस्थान इस प्रकार कहा है- उपपाद, मारणान्तिक समुद्घात और कपाट आदि समुद्घात करनेवाले सयोगकेवलि जिनको छोड़कर शेष त्रस त्रसनाड़ी के बाहर नहीं रहते ऐसा जिनदेवने कहा है
उक्त गाथा आशाधर की टीका में उद्धृत है । गोमट्टसार जीवकाण्ड में 'जिणक्कवाडादिरहिय' पाठ नहीं है । शेष सब यही है । तिलोयपणेत्ति (२८) में त्रस नाड़ीका परिमाण बतलाते हुए कहा है- उपपाद मारणान्तिक समुद्घातमें परिणत त्रस तथा लोकपूरण समुद्घातको प्राप्त केवलीका आश्रय करके सारा लोक ही त्रसनाली है । त्रसजीव त्रसनालीमें ही रहते हैं। लोकके ठीक मध्यसे एक राजू चौड़ी लम्बी और कुछ कम चौदह राजू ऊँची त्रसनाड़ी है । उपपाद मारणान्तिक समुद्घात और केवली समुद्घात अवस्थामें त्रस जीव त्रस नाड़ीके बाहर पाये जाते हैं । केवली समुद्घातकी चार अवस्थाएँ हैं - दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण । तिलोयपण्णत्ति के अनुसार लोकपूरण समुद्घातमें केवलीके आत्मप्रदेश त्रसनाड़ीके बाहर पाये जाते हैं । किन्तु ऊपरवाली गाथाके अनुसार कपाट-प्रतर में भी त्रसनाड़ीके बाहर पाये जाते हैं । गोमट्टावाली गाथामें केवली समुदघातका निर्देश नहीं है । किन्तु उसकी टीका में कपाट आदि अवस्थामें आत्मप्रदेशोंको त्रसनालीके बाहर बतलाया है ।
गो. जी. १९८ गा. ।
१. 'उववादमारणंतिय परिणदतसमुज्झिऊण सेस तसा ।' २. 'उववाद मारणंतिय परिणद तस लोयपूरणेण गदो । केवलण अवलंविय सव्वजगो होदि तसणाली' ॥ ति० प० २८|
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