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________________ चतुर्थ अध्याय २२७ तत्र तावत् हिंसालक्षणमाह--व्यपरोप्यन्ते-यथासंभवं वियोज्यन्ते । प्रमत्तयोगतः-प्रमादः सकषायत्वं तद्वानात्मपरिणामः प्रमत्तः तस्य योगः-सम्बन्धः तस्मात्ततः । रागाद्यावेशादित्यर्थः। प्राणा:इन्द्रियादयो दश । तदुक्तम् ___पंचवि इंदियपाणा मणवचि-काएसु तिण्णि बलपाणा।। __आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण हुति दह पाणा ।। [ गो. जी. १३० गा. ] ते च चित्सामान्यानुविधायी पुद्गलपरिणामो द्रव्यप्राणाः । पुद्गलसामान्यानुविधायी चित्परिणामो भावप्राणाः । तदुभयभाजो जीवाः संसारिणस्त्रसा: स्थावराश्च । तत्र स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण-शब्दान् स्पर्शन-रसनघ्राण-चक्षुः-श्रोत्रेषु क्रमेण द्वाभ्यां त्रिभिश्वतुभिः पञ्चभिश्च पृथग् ज्ञानं ते (जानन्तो) द्वीन्द्रियादयश्चतुर्द्धा त्रसाः । तद्विकल्पश्लोका यथा 'जलूका शुक्ति-शम्बूक-गण्डू-पद-कपर्दकाः । जठरकृमिशंखाद्या द्वीन्द्रिया देहिनो मताः ॥ विशेषार्थ-इन्द्रियोंको स्वच्छन्द वृत्तिका विचार किये बिना जो प्रवृत्ति करता है वह प्रमत्त है । अथवा जो कषायके आवेशमें आकर हिंसा आदिके कारणों में संलग्न रहते हुए अहिंसामें शठतापूर्वक प्रवृत्त होता है वह भी प्रमत्त है । अथवा राजकथा, स्त्रीकथा, चोरकथा, भोजनकथा ये चार कथाएँ, पाँच इन्द्रियाँ, निद्रा और स्नेह इन पन्द्रह प्रमादोंसे जो प्रमादी है वह प्रमत्त है । अथवा कषाय सहित आत्मपरिणामका नाम प्रमत्त है। उसके योगसे अर्थात् रागादिके आवेशसे । प्राण दस हैं पाँच इन्द्रिय प्राण, मनोबल, वचनबल, कायबल ये तीन बलप्राण, एक श्वासोच्छ्वास प्राण और एक आयु प्राण-ये दस प्राण होते हैं। ये प्राण दो प्रकारके हैं-द्रव्यप्राण और चित्सामान्यका अनुसरण करनेवाले पुद्गलके परिणामको द्रव्यप्राण कहते हैं और पुद्गल सामान्यका अनुसरण करनेवाले चेतनके परिणामको भावप्राण कहते हैं। इन दोनों प्रकारके प्राणोंसे युक्त जीव संसारी होते हैं। संसारी जीव दो प्रकारके होते हैं-त्रस और स्थावर । स्पर्शन, रसना, घ्राण, 'चक्षु, श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ हैं और स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द इनका क्रमसे विषय है। जो जीव क्रमसे आदिकी दो इन्द्रियोंसे जानता है वह दो-इन्द्रिय जीव है, जो तीनसे जानता है वह तीन-इन्द्रिय जीव है, जो चारसे जानता है वह चौइन्द्रिय जीव है और जो पाँचों इन्द्रियोंसे जानता है वह पंचेन्द्रिय जीव है। ये सब त्रस हैं। इनके कुछ भेद इस प्रकार हैं १. 'संवुक्कमादुवाहा संखासिप्पी अपादगा य किमी। जाणंति रसं फासं जे ते वेइंदिया जीवा ॥ जगागुंभीमक्कडपिपीलिया विच्छिदया कीडा । जाणंति रसं फासं गंध तेइंदिया जीवा ।। उइंसमसयमक्खियमधुकरभमरापतंगमादीया । रूपं रसं च गंधं फासं पुण ते वि जाणंति ।। सुरणरणारयतिरिया वण्णरसप्फासगंधसद्दण्ह । जलचरथलचरखचर वलिया पंचेदिया जीवा'। -पञ्चास्ति. ११४-११७ गा. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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