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अथ इन्द्रियाणां प्रज्ञोपघातसामर्थ्यं कथयति -
इत्यर्थः । प्रज्ञा - बुद्धिः । स्त्रीति ग्राह्यम् ॥१६॥
चतुर्थं अध्याय
स्वार्थ र सिकेन ठकवद् विकृष्यतेऽक्षेणयेन तेनापि ।
न विचारसंपदः परमनुकम्पाजीवितादपि प्रज्ञा ॥१६॥
प्रच्यावत
स्वार्थं रसिकेन - स्वविषयलम्पटेन स्वप्रयोजनकामेन च । विकृष्यते -- दूरीक्रियते । अत्राप्युपमानभूता कामिनी गम्यते । अथवा प्रजानातीति प्रज्ञाऽतिविदग्धा
अथ विषयिणोऽपायं दर्शयति
विषयामिषलाम्पटयात्तन्वन्नजु नृशंसताम् ।
लाला मिवोर्णनाभोऽधः पतत्यहह दुर्मतिः ॥ १७॥
आमिषं - प्राणिलक्षणो ग्रासः । ऋजु – सम्मुखं प्राञ्जलं च । नृशंसतां - - हिंसकत्वं अधःअधोगती अधोदेवो च । अहह खेदे ||१७||
अथ विषयनिस्पृहस्येष्टसिद्धिमाचष्टे
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यथाकथञ्चिदेव विषयाशापिशाचिका ।
क्षिप्यते चेत् प्रलप्यालं सिद्धयतीष्टमविघ्नतः ॥ १८ ॥
प्रलप्यालं – अलं प्रलपनेन, अनर्थकं न वक्तव्यमित्यर्थः । इष्टं - प्रकृतत्वात् सुचरित मूलभूतां दयाम् ||१८||
अथ किं तत्सद्व्रतमित्याह
आगे कहते हैं कि इन्द्रियाँ मनुष्योंकी प्रज्ञाको - यथार्थ रूपमें अर्थको ग्रहण करने की शक्तिको नष्ट कर देती हैं
arat तरह अपने निमित्तसे बल प्राप्त करके चक्षु आदि इन्द्रियोंमें से कोई भी इन्द्रिय अपने विषयकी लम्पटताके कारण न केवल मनुष्यकी प्रज्ञाको - उसकी यथार्थ रूपमें अर्थको ग्रहण करने की शक्तिको विचारसम्पदासे दूर करती है किन्तु दयारूपी जीवनसे भी दूर कर देती है ॥१६॥
विशेषार्थ - जैसे कोई भी ठग अपने मतलबसे किसी स्त्रीके भूषण ही नहीं छीनता किन्तु उसका जीवन भी ले लेता है, उसे मार डालता है । उसी तरह इन्द्रिय भी मनुष्यकी बुद्धिको युक्तायुक्त विचारसे ही भ्रष्ट नहीं करती किन्तु दयाभाव से भी भ्रष्ट कर देती है । इसलिए मुमुक्षुको सदा इन्द्रियोंको जीतनेका प्रयत्न करना चाहिए || १६ ||
विषयलम्पट मनुष्यकी दुर्गति दिखाते हैं
जैसे मकड़ी मक्खी वगैरहको खानेकी लम्पटतासे अपने जालको फैलाती हुई नीचे गिर जाती है उसी तरह खेद है कि दुर्बुद्धि प्राणी विषयरूपी . मांसकी लम्पटताके कारण हिंसकपनेको विस्तारता हुआ नरकादि गतिमें जाता है ||१७||
आगे कहते हैं कि जो विषयोंसे निस्पृह रहता है उसकी इष्टसिद्धि होती है
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अधिक कहने से क्या ? यदि जिस किसी भी तरह एक विषयोंकी आशारूप पिशाचीको हो भगा दिया जाये, उससे अपना पीछा छुड़ा लिया जाये तो इष्ट - चारित्रकी मूल दया नामक वस्तु विघ्नके बिना सिद्ध हो सकती है ॥ १८ ॥
सुचरित्ररूपी छायावृक्ष का मूल दयाका कथन करके उसके स्कन्धरूप समीचीन व्रतका कथन करते हैं
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