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धर्मामृत (अनगार) अथ दयाभावनापरस्य प्रीतिविशेषः फलं स्यादित्याह
तत्त्वज्ञानच्छिन्नरम्येतरार्थप्रीतिद्वेषः प्राणिरक्षामृगाक्षीम्।।
आलिङ्गयालं भावयन्निस्तरङ्गस्वान्तः सान्द्रानन्दमङ्गत्यसङ्गः ॥१४॥ भावयन् -गुणानुस्मरणद्वारेण पुनः पुनश्चेतसि सन्निवेशयन् । निस्तरङ्गस्वान्तः-निर्विकल्पमनाः । अंगति-गच्छति । असङ्गः-यतिः ॥१४॥ अथ दयारक्षार्थं विषयत्यागमुपदिशति--
सवृत्तकन्दली काम्यामुभेदयितुमुद्यतः।
येश्छिद्यते दयाकन्दस्तेऽपोह्या विषयाखवः ॥१५॥ काम्यां-तत्फलाथिभिः स्पृहणीयाम् ॥१५॥
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आगे कहते हैं कि दयाकी भावनामें तत्पर व्यक्ति प्रीतिविशेषरूप फलको पाता है
परिग्रहका त्यागी यति तत्त्वज्ञानके द्वारा प्रिय पदार्थों में रागको और अप्रिय पदार्थों में द्वेषको नष्ट करके जीवदयारूपी कामिनीका आलिंगनपूर्वक उसके गुणोंका पुनः-पुनः स्मरण करते हुए जब निर्विकल्प हो जाता है तो गाढ़ आनन्दका अनुभव करता है ॥१४॥
दयाकी रक्षाके लिए विषयोंके त्यागका उपदेश देते हैं
मुमुक्षुओंके द्वारा चाहने योग्य सम्यकचारित्ररूपी कन्दलीको प्रकट करने में तत्पर दयारूपी कन्द जिनके द्वारा काटा जाता है उन विषयरूपी चूहोंको त्यागना चाहिए ॥१५||
विशेषार्थ-दयाको धर्मका मूल कहा है। मूलको कन्द भी कहते हैं । कन्दमें-से ही अंकुर फूटकर पत्र, कली आदि निकलते हैं। इस सबके समूहको कन्दली कहते हैं। जैसे कन्दली कन्दका कार्य है वैसे ही दयाका कार्य सम्यक्चारित्र है। सम्यक्चारित्र जीवदयामें-से ही प्रस्फुटित होता है। उस दयाभावको विषयोंकी चाहरूपी चूहे यदि काट डालें तो उसमें-से सम्यक्चारित्रका उद्गम नहीं हो सकता है । अतः दयालु पुरुषको विषयोंसे बचना चाहिए। विषय हैं इन्द्रियोंके द्वारा प्रिय और अप्रिय कहे जानेवाले पदार्थ । उनकी लालसामें पड़कर ही मनुष्य निर्दय हो जाता है । अतः दयालु मनुष्य अपने दयाभावको सुरक्षित रखनेके लिए उस सभी परिग्रहका त्याग करता है जिसको त्यागना उसके लिए शक्य होता है और जिसका त्यागना शक्य नहीं होता उससे भी वह ममत्व नहीं करता। इस तरह वह सचेतनअचेतन सभी परिग्रहको छोड़कर साधु बन जाता है और न इष्ट विषयोंसे राग करता है और अनिष्टविषयोंसे द्वेष । राग और द्वेष तो दयाभावके शत्रु हैं इसीलिए कहा है-'आगममें रागादिकी अनुत्पत्तिको अहिंसा और रागादिकी उत्पतिको हिंसा कहा है। यह जिनागमका सार है ।' अतः उत्कृष्ट दया अहिंसा ही है। दयामें-से ही अहिंसाकी भावना प्रस्फुटित होती है। वही अहिंसाके रूपमें विकसित होती है ॥१५॥
१. 'रागादीणमणुप्पा अहिंसगत्ते त्ति भासिदं समये ।
तेसिं चेदुप्पत्ती हिंसेति जिणागमस्स संरवेओ' ॥
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