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धर्मामृत (अनगार )
हिंसाऽनृतचुराऽब्रह्मग्रन्थेभ्यो विरतिव्रतम् । तत्सत्सज्ज्ञानपूर्वत्वात् सदृशश्चोपबृंहणात् ॥१९॥
चुरा - चौर्यम् | अब्रह्म — मैथुनम् । सत् - प्रशस्तम् । तत्र सर्वजीवविषयमहिंसाव्रतम्, अदत्तपरिग्रहत्यागी सर्वद्रव्यविषयौ । द्रव्यैकदेशविषयाणि शेषव्रतानि । उक्तं च
'पढेमम्मि सव्वजीवा तदिये चरिमे य सव्वदव्वाणि ।
सेसा महव्वया खलु तदेकदेसम्हि दव्वाणं ॥ [विशेषाव. भा. २६३७ गा. ] ॥१९॥
हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहसे मन-वचन-काय, कृत कारित अनुमोदनापूर्व निवृत्तिको व्रत कहते हैं । सम्यग्ज्ञानपूर्वक होनेसे तथा सम्यग्दर्शनको बढ़ाने में कारण होने से उन्हें समीचीन या प्रशस्त व्रत कहते हैं ॥ १९ ॥
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विशेषार्थ — कषायसहित आत्मपरिणाम के योगसे प्राणोंके घात करनेको हिंसा कहते हैं । प्राणीको पीड़ा देनेवाले वचन बोलना असत्य है । बिना दी हुई वस्तुको ग्रहण करना चोरी है । मैथुनको ब्रह्म कहते हैं । ममत्व भावको परिग्रह कहते हैं । अहिंसा व्रतमें सभी जीव समाविष्ट हैं अर्थात् किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करनी चाहिए । इसी तरह बिना दी हुई वस्तु त्याग और परिग्रह त्यागमें सभी द्रव्य आते हैं । कोई भी वस्तु बिना दिये हुए नहीं लेना चाहिए और न किसी भी वस्तुमें 'यह मेरी है' इस प्रकारका ममत्व भाव रखना चाहिए | किन्तु असत्य त्याग और मैथुन त्याग व्रत द्रव्यके एकदेशको लेकर हैं । अर्थात् असत्य त्यागमें वचन मात्रका त्याग नहीं है किन्तु असत्य वचनका त्याग है और मैथुन त्याग मैथुनके आधारभूत द्रव्योंका ही त्याग है। कहा भी है- 'पहले अहिंसा व्रतमें सभी जीव और तीसरे तथा अन्तिम व्रतमें सभी द्रव्य लिये गये। शेष दो महाव्रत द्रव्योंके एकदेशको लेकर होते हैं।' इन्हीं पाँच व्रतोंका पालन करनेके लिए रात्रिभोजन त्याग छठा व्रत भी रहा है । भगवती आराधनाकी विजयोदया टीका (गा. ४२१) में लिखा है कि प्रथम - अन्तिम तीर्थंकरके तीर्थ में रात्रिभोजनत्याग नामक छठा व्रत है । ग्रन्थकार पं. आशाधरने भी अपनी टीकामें अणुव्रत नामसे इस छठे व्रतका निर्देश किया है । किन्तु पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि (७/१ ) में व्रतोंका वर्णन करते हुए रात्रिभोजन नामक छठे अणुव्रता निषेध करते हुए अहिंसाव्रतकी भावनामें उसका अन्तर्भाव कहा है । श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेन गणिने तत्त्वार्थ भाष्य ( ७१२ ) की टीकामें भी यह प्रश्न उठाया है कि यदि अहिंसात्रतके पालन के लिए होनेसे असत्यविरति आदि मूल गुण है तो रात्रिभोजनविरति भी मूलगुण होना चाहिए। इसके उत्तरमें उन्होंने कहा है कि अहिंसाव्रत के पालन के लिए तो समिति भी है उसको भी मूलगुण मानना होगा । तथा रात्रिभोजन विरति महाव्रतीका ही मूलगुण है क्योंकि उसके अभाव में तो मूलगुण ही अपूर्ण रहते हैं । अतः मूलगुणोंके ग्रहण में उसका ग्रहण हो जाता है । जिस तरह रात्रिभोजन त्याग सब व्रतोंका उपकारक उस तरह उपवासादि नहीं है इसलिए रात्रिभोजनत्याग महाव्रतीका मूल गुण है शेष उत्तरगुण है। हाँ, अणुव्रतधारीके लिए वह उत्तरगुण है । अथवा उपवासकी तरह आहारका त्याग होने से वह तप ही है । श्री सिद्धसेन गणिने जो कहा है वही उनके पूर्वज जिनभद्रगणि
१. भ. आ. विजयोदया गा. ४२१ में उद्धृत |
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