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प्रस्तावना
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मिलकर ढाई हजारसे भी ऊपर जाता है । विस्तृत है, इसमें पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति और पांच समितिका वर्णन है।
५. पांचवें अध्यायका नाम पिण्डशुद्धि है। इसमें ६९ श्लोक हैं। पिण्ड भोजनको कहते हैं । भोजनके छियालीस दोष हैं। सोलह उद्गम दोष हैं, सोलह उत्पादन दोष है, चौदह अन्य दोष हैं। इन सब दोषोंसे रहित भोजन ही साधके द्वारा ग्रहण करने योग्य होता है। उन्हींका विस्तृत वर्णन इस अध्यायमें है।
६. छठे अध्यायका नाम मार्गमहोद्योग है। इसमें एक सौ बारह श्लोक हैं। इसमें दस धर्म, बारह भावना, बाईस परीषहोंका वर्णन है ।
७. सातवें अध्यायका नाम तप आराधना है। इसमें १०४ श्लोक द्वारा बारह तपोंका वर्णन है ।
८. आठवें अध्यायका नाम है आवश्यक नियुक्ति । इसमें १३४ श्लोक हैं। टीकाके मिलानेसे परिमाण १५४५ श्लोक प्रमाण होता है। साधुके षट्कर्मोको षडावश्यक कहते हैं। इनका करना आवश्यक होता है । व्याधि और इन्द्रियोंके वशीभूत जो नहीं है उसे अवश्य कहते हैं और उराके कर्मको आवश्यक कहते हैं । साधकी दिन-रातकी चर्याका इसमें वर्णन है। छह आवश्यक हैं-सामायिक, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग। इन्हींका वर्णन इस अध्यायमें है। अन्तमें कृतिकर्मका वर्णन है। इसके वर्णनमें कृतिकर्मके योग्य काल, आसन, स्थान, मुद्रा, आवर्त और शिरोनतिका कथन किया है। साधुको तीन बार नित्य देव-वन्दना करना चाहिए। प्रत्येकका उत्कृष्ट काल छह घटिका है। रात्रिको अन्तिम तीन घटिका और दिनकी प्रथम तीन घटिका पूर्वाह वन्दनाका काल है । अपराहमें छह घटिका है। इसी तरह सन्ध्याको दिनको अन्तिम तीन घटिका और रात्रिकी आदि तीन घटिका काल उत्कृष्ट है। आसनके पद्मासन आदि भेद हैं । वन्दनाके दो स्थान खड़े होना और बैठना । कृतिकर्मके योग्य चार मद्रा हैं। उनका स्वरूप ( श्लो. ८५-८६) कहा है। वन्दनामें वन्दनामुद्रा, सामायिक और स्तवमें मुक्ताशुक्ति मुद्रा, बैठकर कायोत्सर्ग करनेपर योगमुद्रा और खड़े होकर करने पर जिनमुद्रा धारण की जाती है । बारह आवर्त होते हैं, चार शिरोनति होती है।
___आगे चौदह श्लोकोंसे (९८-१११ ) वन्दनाके बत्तीस दोषोंका तथा ग्यारह श्लोकोंसे ( ११२-१२१ ) कायोत्सर्गके बत्तीस दोषोंका कथन किया है । साधुके लिए यह अधिकार बहुत महत्त्वपूर्ण है ।
९. नवम अध्यायका नाम नित्यनैमित्तिक क्रिया है। इसमें सौ श्लोक हैं। प्रथम चवालीस श्लोकोंमें नित्यक्रियाके प्रयोगकी विधि बतलायी है। स्वाध्याय कब किस प्रकार प्रारम्भ करना चाहिए और कब किस प्रकार समाप्त करना चाहिए। प्रातःकालीन देववन्दना करनी चाहिए। कृतिकर्मके छह प्रकार कहे हैं१. वन्दना करनेवालीकी स्वाधीनता, २. तीन प्रदक्षिणा, ३. तीन निषद्या ( बैठना), ४. तीन कायोत्सर्ग, ५. बारह आवर्त, ६. चार शिरोनति । आगे णमोकार मन्त्रके जपकी विधि और भेद कहे हैं।
इस अध्यायका छब्बीसवाँ श्लोक बहुत महत्त्वपूर्ण है। जिनदेव तो वीतरागी हैं न निन्दासे नाराज होते हैं और न स्तुतिसे प्रसन्न । तब उनकी स्तुतिसे फल-प्राप्ति कैसे होती है, इसीका समाधान करते हुए कहा है-भगवान्के गुणोंमें अनुराग करनेसे जो शुभ भाव होते हैं उनसे कार्यों में विघ्न डालनेवाले अन्तराय कर्मके फल देनेकी शक्ति क्षीण होती है अतः अन्तराय कर्म इष्टका घात करने में असमर्थ होता है । इससे वीतरागकी स्तुति इष्टसिद्धिकारक होती है।
प्रातःकालीन देववन्दनाके पश्चात् आचार्य आदिकी वन्दना करने की विधि कही है। देववन्दना करने के पश्चात् दो घटिका कम मध्याह्न तक स्वाध्याय करना चाहिए। तदनन्तर भिक्षाके लिए जाना चाहिए। फिर प्रतिक्रमण करके मध्याह्न कालके दो घटिका पश्चात् पूर्ववत् स्वाध्याय करना चाहिए। जब दो घड़ी दिन शेष रहे तो स्वाध्यायका समापन करके दैवसिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। फिर रात्रियोग ग्रहण करके आचार्यकी वन्दना करनी चाहिए। आचार्यवन्दनाके पश्चात् देववन्दना करनी चाहिए। दो घटिका रात
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