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________________ २८ धर्मामृत ( अनगार) बीतनेपर स्वाध्याय आरम्भ करके अर्धरात्रिसे दो घड़ी पूर्व ही समाप्त कर देना चाहिए। स्वाध्याय न कर सके तो देववन्दना करे। इस प्रकार नित्यविधि बतलाकर नैमित्तिक विधि बतलायी है। नैमित्तिक क्रियाविधिमें चतुर्दशी क्रियाविधि, अष्टमी क्रियाविधि, पक्षान्त क्रियाविधि है, संन्यास क्रियाविधि, श्रुतपंचमी क्रियाविधि, अष्टाह्निक क्रियाविधि, वर्षायोग ग्रहण, वर्षायोग मोक्ष, वीरनिर्वाण क्रिया आदि आती हैं। इन सब क्रियाओंमें यथायोग्य भक्तियोंका प्रयोग आवश्यक होता है। भक्तिपाठके बिना कोई क्रिया नहीं होती। __ आगे आचार्य पद प्रतिष्ठापनकी क्रियाविधि बतलायी है। आचारवत्व आदि आठ, बारह तप, छह आवश्यक और दस कल्प ये आचार्यके छत्तीस गुण कहे हैं। इनका भी वर्णन है। अन्त में दीक्षा ग्रहण, केशलोंच आदिकी विधि है। इस ग्रन्थमें साधुके अठाईस मूलगुणोंका वर्णन तो है किन्तु उन्हें एकत्र नहीं गिनाया है। ग्रन्यके अम्त में स्थितिभोजन, एकभक्त, भूमिशयन आदिका कथन अवश्य किया है। ३. अनगार धर्मामृतमें चर्चित कुछ विषय धर्म और पुण्य अनगार धर्मामृतके प्रथम अध्यायमें धर्मके स्वरूपका वर्णन करते हुए ग्रन्थकारने सुख और दुःखसे निवृत्ति ये दो पुरुषार्थ बतलाये हैं और उनका कारण धर्मको कहा है। अर्थात् धर्मसे सुखकी प्राप्ति और दुःखसे निवृत्ति होती है। आगे कहा है जो पुरुष मुक्तिके लिए धर्माचरण करता है उसको सांसारिक सुख तो स्वयं प्राप्त होता है अर्थात् सांसारिक सुखकी प्राप्तिको भावनासे धर्माचरण करनेसे सांसारिक सुखको प्राप्ति निश्चित नहीं है। किन्तु मुक्तिकी भावनासे जो धर्माचरण करते हैं उन्हें सांसारिक सुख अवश्य प्राप्त होता है। किन्तु वह धर्म है क्या ? कौन-सा वह धर्म है जो मुक्तिके साथ सांसारिक सुखका भी दाता है। वह धर्म है 'सम्यग्दर्शनादियोगपद्यप्रवत्तैकाग्रतालक्षणरूपशुद्धात्मपरिणाम ।' आत्माके स्वरूपका विशेष रूपसे निश्चय सम्यग्दर्शन है, उसका परिज्ञान सम्यग्ज्ञान है और आत्मामें लीनता सम्यक्चारित्र है । ये तीनों एक साथ एकाग्रतारूप जब होते हैं उसे ही शुद्धात्मपरिणाम कहते हैं और यथार्थमें यही धर्म है। इसीसे मुक्तिके साथ सांसारिक सुख भी मिलता है। ऐसे धर्ममें जो अनुराग होता है उस अनुरागसे जो पुण्यबन्ध होता है उसे भी उपचारसे धर्म कहते हैं क्योंकि उस पुण्यबन्धके साथ हो नवीन पापकर्मका आस्रव रुकता है और पर्वबद्ध पापकर्मकी निर्जरा होती है। पापका निरोध हए बिना पुण्यकर्मका बन्ध नहीं हो सकता। अतः पुण्यबन्धके भयसे धर्मानुरागको नहीं छोड़ना चाहिए। हाँ, जो पुण्यबन्धकी भावना रखकर संसारसुखको अभिलाषासे धर्मकर्म करते हैं वे पुण्यबन्धके यथार्थ भागो नहीं होते । पुण्य बांधा नहीं जाता, बंध जाता है और वह उन्हींके बंधता है जो उसे बाँधनेको भावना नहीं रखते। इसका कारण यह है कि शुभभावसे पुण्यबन्ध होता है और शुभभाव कषायकी मन्दतामें होते हैं। जो संसारके विषयसुखमें मग्न है और उसीकी प्राप्तिके लिए धर्म करते हैं उनके कषायकी मन्दता कहाँ। और कषायकी मन्दताके अभावमें शुभभाव कहाँ ? और शुभभावके अभावमें पुण्यबन्ध कैसा ? आशाधरजीने पुण्यको अनुषंग शब्दसे ही कहा है क्योंकि वह धर्मसे प्राप्त होता है। धर्मके बिना पुण्यबन्ध भी नहीं होता है। अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप धर्मका सेवन करते हुए जो शुभराग रहता है उससे पुण्यबन्ध होता है । सम्यग्दर्शन आदिसे पुण्यबन्ध नहीं होता । रत्नत्रय तो मोक्षका हो कारण है, बन्धका कारण नहीं है क्योंकि जो मोक्षका कारण होता है वह बन्धका कारण नहीं होता । पुरुषार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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