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धर्मामृत ( अनगार)
२. अनगार धर्मामृत विषय परिचय
भगवान महावीरका धर्म दो भागोंमें विभाजित है-अनगार या साधुका धर्म और सागार या गहस्थका धर्म। तदनुसार आशाधरजीके धर्मामृतके भी दो भाग हैं-प्रथम भागका नाम अनगारधर्मामत है। इससे पर्व में साधधर्मका वर्णन करनेवाले दो ग्रन्थ दिगम्बर परम्परामें अतिमान्य रहे है-मूलाचार और भगवती आराधना। दोनों ही प्राकृत गाथाबद्ध हैं। उनमें भी मात्र एक मूलाचार ही साधु आचारका मौलिक ग्रन्थ है उसमें जैन साधुका पूरा आचार वर्णित है। भगवती आराधनाका तो मुख्य प्रतिपाद्य विषय सल्लेखना या समाधिमरण है। उसमें तथा उसके टीका-ग्रन्थों में प्रसंगवश साधुका आचार भी वर्णित है। आचार्य कुन्दकुन्दके प्रवचनसारके अन्तमें तथा उनके पाहुड़ोंमें भी साधुका आचार वर्णित है। उसके पश्चात् तत्त्वार्थ सूत्रके नवम अध्याय तथा उसके टीका ग्रन्थोंमें भी साधुका आचार-गुप्ति, समिति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, परीषहजय चारित्र-तप, ध्यान आदिका वर्णन है। चामुण्डरायके छोटे-से ग्रन्थ चारित्रसारमें भी साधुका आचार है। इन्हीं सबको आधार बनाकर आशाधरजीने अपना अनगार धर्मामृत रचा था। उसमें नौ अध्याय हैं
१. प्रथम अध्यायका नाम धर्मस्वरूप निरूपण है। इसमें ११४ श्लोक हैं। भव्यकुमुदचन्द्रिका टीकाको सम्मिलित करनेसे परिमाण १६०० श्लोक प्रमाण होता है। इसके प्रारम्भमें आवश्यक नमस्कारादि करनेके पश्चात धर्मके उपदेष्टा आचार्यका स्वरूप बतलाते हुए उसे 'तीर्थतत्त्वप्रणयननिपुण' होना आवश्यक कहा है। तीर्थका अर्थ किया है अनेकान्त और तत्त्वका अर्थ किया है अध्यात्मरहस्य । उन दोनोंके कथनमें चतुर होना चाहिए। यदि वह एकमें ही निपुण हुआ तो दूसरेका लोप हो जायेगा। अर्थात् आगम और अध्यात्म दोनोंको ही साधकर बोलनेवाला होना चाहिए। जो व्यवहारनिश्चयरूप रत्नत्रयात्मक धर्मका स्वरूप जानकर और शक्तिके अनुसार उसका पालन करते हुए परोपकारकी भावनासे धर्मोपदेश करता है वह वक्ता उत्तम होता है । तथा जो सदा प्रवचन सुननेका इच्छुक रहता है, प्रवचनको आदरपूर्वक सुनता है, उसे धारण करता है, सन्देह दूर करने के लिए विज्ञोंसे पूछता है, दूसरोंको प्रोत्साहित करता है वह श्रोता धर्म सुननेका पात्र होता है। जिससे अभ्युदय और निःश्रेयसकी सिद्धि होती है उसे धर्म कहते हैं । अतः प्रथम धर्मके अभ्युदयरूप फलका कथन किया है और इस तरह यह पुण्यरूप धर्मका फल है। अतः पुण्यकी प्रशंसा की है। उसके पश्चात् संसारकी असारता बतलाकर यथार्थ धर्म निश्चयरत्नत्रयका कथन किया है। टीकामें लिखा है-अशुभ कर्म अर्थात् पुण्य और पाप दोनों। क्योंकि सभी कर्म जीवके अपकारी होनेसे अशुभ होते है। इसीसे आगे कहा है-निश्चय निरपेक्ष व्यवहार व्यर्थ है तथा व्यवहारके बिना निश्चयकी सिद्धि नहीं होती। यहाँ निश्चय और व्यवहारके भेदोंका स्वरूप वर्णित है।
२. दूसरे अध्यायका नाम है सम्यक्त्वोत्पादनादिक्रम । इसमें एक सौ चौदह श्लोक हैं। टीकाके साथ मिलानेसे लगभग १५०० श्लोक प्रमाण होता है। इसमें मिथ्यात्वके वर्णनके साथ सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिकी प्रक्रिया तथा उसके भेदादिका वर्णन है। प्रारम्भमें नौ पदार्थों का स्वरूप कहा है। फिर सम्यक्त्वके दोषोंका तथा उसके अंगोंका वर्णन है। इसीमें मिथ्यादृष्टियोंके साथ संसर्गका निषेध करते हुए जिनरूपधारी आचारभ्रष्ट मुनियों और भट्टारकोंसे दूर रहनेके लिए कहा है ।
३. तीसरे अधिकारका नाम है ज्ञानाराधन । इसमें ज्ञानके भेदोंका वर्णन करते हुए श्रुतज्ञानकी आराधनाको परम्परासे मुक्तिका कारण कहा है। इसको श्लोक संख्या चौबीस है ।
४. चतुर्थ अध्यायका नाम है चारित्राराधन। इसमें एक सौ तेरासी श्लोक हैं । टीकाका परिमाण
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