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________________ प्रस्तावना २५ सामाचारी साधुओंकी सामाचारी भी अपना एक विशेष स्थान रखती है। मूलाचारको टीकामें इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है-समता अर्थात् रागद्वेषके अभावको समाचार कहते हैं। अथवा त्रिकालदेव वन्दना या पंचनमस्कार रूप परिणाम या सामायिकव्रतको समता कहते हैं। निरतिचार मूलगुणोंका पालन या निर्दोष भिक्षाग्रहण समाचार है। इत्यादि ये सब साधुओंका समान आचार है। इसे ही सामाचारी कहते हैं। पारस्परिक अभिवादन, गुरु आदिके प्रति विनय ये सब इसीमें गभित है। सूर्योदयसे लेकर समस्त रातदिनमें श्रमण जो आचरण करते हैं वह सब पदविभागी सामाचार कहलाता है। जो कुछ भी करणीय होता है वह आचार्य आदिसे पूछकर ही करना होता है। यदि गुरु या साधर्मीकी पुस्तक आदि लेना हो तो विनयपूर्वक याचना करना चाहिए। पदविभागी सामाचारका स्वरूप बतलाते हुए कहा है-कोई श्रमण अपने गुरुसे समस्त श्रुत जानने के बाद विनय सहित पूछता है-मैं आपके चरणोंके प्रसादसे सर्वशास्त्र पारंगत अन्य आचार्यके पास जाना चाहता हूँ। पाँच छै बार पूछता है। गुरुको आज्ञा मिलनेपर वह तीन, दो या एक अन्य साधुके साथ जाता है। एकाकी विहार वही श्रमण कर सकता है जो आगमका पूर्ण ज्ञाता होनेके साथ शरीर और भावसे सुदृढ़ होता है, तपसे वृद्ध तथा आचार और सिद्धान्तमें पूर्ण होता है। जब वह दूसरे आचार्यके संघमें पहुँचता है तो सब श्रमण वात्सल्य भावसे उसे प्रणाम करने के लिए खड़े हो जाते हैं। सात पग आगे बढ़कर परस्परमें प्रणामादि करते हैं। तीन दिन साथ रखकर उसकी परीक्षा करते हैं कि इसका आचार-विचार कैसा है। उसके पश्चात् वह आचार्यसे अपने आनेका प्रयोजन कहता है। गुरु उसका नाम, कुल, गुरु, दीक्षाकाल, वर्षावास, शिक्षा, प्रतिक्रमण आदि पूछते हैं । यदि वह अयोग्य प्रमाणित होता है तो उसे छेद या उपस्थापना आदि प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करते हैं। यदि वह स्वीकार नहीं करता तो उसे स्वीकार नहीं किया जाता। यदि आचार्य छेदयोग्यको भी स्वीकार करते हैं वे स्वयं छेदके योग्य होते हैं। मृत्यु सल्लेखनापूर्वक मरण ही यथार्थ मरण है। भगवती आराधनामें भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी और न संन्यासपूर्वक मरणकी विधि तथा मृतकके संस्कारको विधिका विस्तारसे वर्णन किया है। प्राचीन साधु संघमें मृतकका दाहसंस्कार नहीं होता था। वनवासियों के पास उसके प्रबन्धके कोई साधन भी नहीं होते थे। अतः शवको किसी झाड़ी वगैरहमें रख देते थे और उसकी दशाके ऊपरसे देश और राजा तथा संघका शुभाशुभ विचारा जाता था। प्राचीन परिपाटी और आजकी परिपाटीमें बहुत अन्तर आ गया है । यद्यपि प्रक्रिया सब पुरातन ही है किन्तु देशकालकी परिस्थितिने उसे प्रभावित किया है और उससे मुनिमार्गमें शिथिलाचार बढ़ा है। फिर भी दिगम्बर मुनिमार्ग-जैसा कठोर संयम मार्ग दूसरा नहीं है। और इतने कठोर अनुशासित संयममार्गके बिना इस संसारके बन्धनसे छुटकारा होना भी सम्भव नहीं है। कषाय और इन्द्रियासक्ति इस संसारकी जड़ है और इस जड़की जड़ है मिथ्याभाव, आत्मस्वरूपके प्रति अरुचि । अपने यथार्थ स्वरूपको न जाननेके कारण ही जीवको आसक्ति संसारमें होती है। कदाचित् उसमें जिज्ञासा जाग्रत् हो जाये तो इसे शुभ लक्षण ही मानना चाहिए । [४] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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