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धर्मामृत (अनगार)
कनकावली सर्वतोभद्र आदि उपवास करना साकार प्रत्याख्यान है । इच्छानुसार कभी भी उपवास आदि करना अनाकार प्रत्याख्यान है । कालका परिमाण करके षष्ठम उपवास आदि करना परिमाणगत प्रत्याख्यान है। जीवनपर्यन्तके लिए चारों प्रकारके आहारको त्यागना अपरिशेष प्रत्याख्यान है। अटवी नदी आदिके मार्गको लाँघनेपर जो उपवास किया जाता है वह अध्वगत प्रत्याख्यान है । उपसर्ग आदिको लेकर जो उपवासादि किया जाता है वह सहेतुक प्रत्याख्यान है।
यह प्रत्याख्यान पाँच प्रकारको विनयसे शुद्ध होना चाहिए, अनुभाषणा शुद्ध होना चाहिए अर्थात् गुरु जिस प्रकार प्रत्याख्यानके शब्दोंका उच्चारण करें उसी प्रकार उच्चारण करना चाहिए। उपसर्ग, रोग, भयानक प्रदेश आदिमें भी जिसका पालन किया गया हो इस प्रकार अनुपालन शख होना चाहिए तथा भावविशुद्ध होना चाहिए ।
दोनों हाथों को नीचे लटकाकर तथा दोनों पैरोंके मध्य में चार अंगुलका अन्तर रखते हुए निश्चल खड़े होना कायोत्सर्ग है । इस कायोत्सर्गका उत्कृष्टकाल एक वर्ष और जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । अन्य कायोत्सर्गों के कालका प्रमाण इस प्रकार कहा है
१. दैनिक प्रतिक्रमण
२. रात्रि प्रतिक्रमण
२. पाक्षिक प्रतिक्रमण
४. चातुर्मासिक प्रतिक्रमण ५. वार्षिक
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६. पाँच महाव्रतों में से किसी में
भी दोष लगनेपर
७. भोजन लेनेपर
८. पानी लेने पर
९. भोजन करके लौटनेपर
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१३. मलत्याग करनेवर
१४. सूत्र त्यागनेपर
१५. ग्रन्थ प्रारम्भ करनेपर
१६. ग्रन्थ समाप्त होनेपर
१७. स्वाध्याय करनेपर
१८. बन्दनामे
१९. उस समय मनमें विकार
उत्पन्न होनेपर
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इन इन कार्योंमें जो कायोत्सर्ग किये जाते हैं उसके उच्छ्वासोंका प्रमाण मूलाधार ( ७१५९-१६४ ) में उक्त रूपमें कहा है। ईर्यापच सम्बन्धी अतिचारोंकी विशुद्धिके लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। कायोत्सर्ग में स्थित होकर के अतीचारोंके विनाशका चिन्तन करके उसे समाप्त करके धर्मध्यान और शुक्लध्यानका चिन्तन करना चाहिए। कायोत्सर्गके अनेक दोष कहे हैं तथा चार भेद कहे हैं ।
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१०. अन्य ग्रामको जानेपर ११. पवित्र स्थानोंको जानेपर १२. लोटनेपर
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स्वाध्यायका महत्त्व
साधु जीवनमें अम्य अन्य कर्तव्योंके साथ स्वाध्यायका विशेष महत्व है। साधुके पाँच आचारोंमेंसे एक ज्ञानाचार भी है । स्वाध्याय उसीका अंग है । स्वाध्यायके प्रतिष्ठापन और निष्ठापनकी विधि में कहा है। कि प्रभातकाल में दो पड़ी बीतने पर जब तीसरी घड़ी लगे तो स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिए और मध्याह्न कालसे दो घड़ी पूर्व समाप्त करना चाहिए। इसी तरह मध्याह्नकालसे दो घड़ी बीतने पर स्वाध्याय प्रारम्भ करे और दिनका अन्त होने में दो घड़ी शेष रहने पर समाप्त करे। प्रदोषसे दो घड़ी बीतने पर प्रारम्भ करे और अर्धरात्रिमें दो घड़ी शेष रहनेपर समाप्त करे तथा आधी रातसे दो पड़ी बीतनेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करे और रात्रि बीतने में दो पड़ी शेष रहने पर समाप्त कर दे। इस तरह स्वाध्यायके चार काल कहे हैं। यह बतलाता है कि साधुको कभी भी खाली नहीं बैठना चाहिए। सर्वदा अपना उपयोग धर्मध्यानमें लगाये रखना चाहिए।
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