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चतुर्थ अध्याय
अथ क्रमप्राप्तां चारित्राराधनां प्रति मुमुक्षूनुत्साहयति -
सम्यग्दृष्टि सुभूमिवैभवलसद्विद्याम्बुमाद्यद्दया
मूलः सद्व्रत सुप्रकाण्ड उदयद्गुप्त्यग्रशाखाभरः । शोलोद्योद्विपः समित्युपलतासंपद्गुणोद्धोद्गम
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वैभवं — प्रभावः । दया -- दुःखार्तजन्तुत्राणाभिलाषः । प्रकाण्डः - स्कन्धः । विटप:- विस्तारः । उपलताः-उपशाखाः । उद्धोद्गमानि - प्रशस्तपुष्पाणि । जन्म - संसारः । सुचरितं – सर्व सावद्ययोगविरतोऽस्मीत्येवं रूपं सामायिकं नाम प्रागुपादेयं सम्यक्चारित्रम् । तस्यैवैदंयुगीनानुद्दिश्य छेदोपस्थापनरूपतया प्रपञ्च्यमानत्वात् । छायातरुः - यस्यार्कपरिवर्तनेऽपि छाया न चलत्यसौ ॥१॥
च्छेत्तुं जन्मपथक्लमं सुचरितच्छायातरुः श्रीयताम् ॥१॥
अब क्रमसे प्राप्त चारित्राराधनाके प्रति मुमुक्षुओंको उत्साहित करते हैं
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका अच्छी तरहसे बारम्बार सेवन करनेवाले मुमुक्षुओं को जन्मरूपी मार्गकी थकान दूर करनेके लिए सम्यकूचारित्ररूपी छायावृक्षका आश्रय लेना चाहिए। इस वृक्षका मूल दया है। यह दयारूप मूल दर्शनविशुद्धिरूपी उत्तम भूमिके प्रभाव से अपना कार्य करने में समर्थ सम्यक् श्रुतज्ञानरूपी जलसे हरा-भरा है । समीचीन व्रत उसका स्कन्ध (तना) है । गुप्तिरूप प्रधान उन्नत शाखासे शोभित है । शीलरूपी उठा हुआ विटप है । समितिरूप उपशाखा सम्पदा से युक्त है । उसमें संयम के भेद-प्रभेदरूपी सुन्दर फूल लगे हैं ॥१॥
विशेषार्थ – सम्यक् चारित्रको छायातरुकी उपमा दी है। सूर्यकी दिशा बदल जानेपर भी जिसकी छाया बनी रहती है उसे छायावृक्ष कहते हैं । सम्यक्चारित्र ऐसा ही छायावृक्ष है । उसका मूल दया है। दुःखसे पीड़ित जन्तुकी रक्षा करनेकी अभिलाषाका नाम दया है । वही दया सम्यक्चारित्ररूपी वृक्षका मूल है। वह मूल विशुद्ध सम्यग्दर्शनरूपी भूमि में श्रुतज्ञानरूपी जलसे सिंचित होनेसे अपना कार्य करने में समर्थ है । जिसमें से अंकुर फूटता है वह मूल होता है । दयारूपी मूलमें से ही व्रतादिरूप अंकुर फूटते हैं । अतः व्रत उसका ना है। गुप्ति उसकी प्रधान शाखा है । सम्यक् रीति से योगके निग्रहको गुप्ति कहते हैं । समितियाँ उपशाखाएँ हैं । शास्त्रानुसार प्रवृत्ति करनेका नाम समिति है । शील विटप हैवृक्षका फैलाव है । जो व्रतकी रक्षा करता है उसे शील कहते हैं । संयमके भेद उसके फलफूल हैं। इस तरह सम्यक्चारित्र छायावृक्ष के तुल्य है जो संसाररूपी मार्ग में भ्रमण करने से उत्पन्न हुए थकान को दूर करता है । सबसे प्रथम 'मैं सर्व सावद्ययोग से विरत हूँ' इस प्रकार सामायिकरूप सम्यक् चारित्र उपादेय होता है । उसी चारित्रको यहाँ इस युग के साधुओंके उद्देश्यसे छेदोपस्थापनारूपमें विस्तारसे कहा जाता है ॥१॥
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