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________________ २१६ धर्मामृत ( अनगार) ततः असुनयवर्जसमस्ततपोभ्यः स्वाध्यायस्योत्कृष्टशुद्धिहेतुतया समाधिमरणसिद्धयर्थं नित्यकर्तव्यतां दर्शयति-- नाभूनास्ति न वा भविष्यति तपःस्कन्धे लपो यत्सम ____ कर्मान्यो भवकोटिभिः क्षिपति यद्योऽन्तर्मुहूर्तेन तत् । शुद्धि वाऽनशनादितोऽमितगुणां येनाऽश्नुतेऽश्नन्नपि, ___ स्वाध्यायः सततं क्रियेत स मृतावाराधनासिद्धये ॥२३॥ स्कन्धः-समूहः । अन्यः--तपोविधिः। अमितगुणां-अनन्तगुणाम् ।।२३।। अथ श्रुतज्ञानाराधनायाः परम्परया परममुक्तिहेतुत्वमाह श्रुतभावनया हि स्यात् पृथक्त्वैकत्वलक्षणम् । शुक्लं ततश्च कैवल्यं ततश्चान्ते पराच्युतिः ॥२४॥ पृथकुलक्षणं - पृथक्त्ववितर्कवीचाराख्यं क्षणं (?) पृथक्त्ववितर्कवीचाराख्यं प्रथमं शुक्लध्यानम्, एकत्व१२ लक्षणं-एकत्ववितर्कावीचारसंज्ञितं द्वितीयशुक्लध्यानम । ततः-ताभ्यां प्रथमापेक्षत्वाद् द्वितीयस्य । संसारा भावे पुंसः स्वात्मलाभो मोक्ष इति वचनात् । अथवा अन्ते मरणे, पण्डितपण्डितमरणप्राप्यत्वान्निवाणस्य । इति भद्रम् ॥२४॥ १५ इति आशाधरदृन्धायां स्वोपज्ञधर्मामृतपञ्जिकायां ज्ञानदीपिकापरसंज्ञायां तृतीयोऽध्यायः ॥३॥ अत्र अध्यायग्रन्थप्रमाणं त्रिंशं शतं, अङ्कतः श्लोकाः १३० । ध्यानको छोड़कर शेष सभी तपोंमें स्वाध्याय ही ऐसा तप है जो उत्कृष्ट शुद्धिमें हेतु है । अतः समाधिमरणकी सिद्धिके लिए उसे नित्य करनेका विधान करते हैंअनशन आदि छह बा पा और प्रायश्चित्त आदि पाँच अभ्यन्तर तपोंके समूहमें जिसके समान तप न हुआ, न है, न होगा, जो कर्म अन्य तपस्वी करोड़ों भवों में निर्जीण करता है उसे जो अन्तर्मुहूर्तमें ही निर्जीण करता है, जिसके द्वारा भोजन करते हुए भी अनशन आदिसे अनन्तगुनी विशुद्धि प्राप्त होती है वह स्वाध्याय तप मरणके समय आराधनाकी सिद्धिके लिए सदा करना चाहिए ॥२३॥ आगे कहते हैं कि श्रुतज्ञानकी आराधना परम्परासे मुक्तिकी कारण है यतः श्रतभावनासे पृथक्त्व वितके और एकत्व वितर्क रूप शवलध्यान होते हैं। शुक्लध्यानसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है और केवलज्ञानसे अन्तमें परम मुक्ति प्राप्त होती है ।।२४।। _ विशेषार्थ-श्रुतभावना व्यग्रतारहित ज्ञानरूप भी होती है और एकाग्र ज्ञान रूप भी होती है। व्यग्रता रहित ज्ञान रूपको स्वाध्याय कहते हैं और एकाग्र ज्ञान रूपको धर्म्यध्यान कहते हैं। अतः स्वाध्यायसे धर्मध्यान होता है। धर्मध्यानसे पृथक्त्व वितर्क वीचार नामक शुक्ल ध्यान होता है। उससे एकत्व वितर्क वीचार नामक दूसरा शुक्ल ध्यान होता है । उससे अनन्तज्ञानादि चतुष्टय रूप जीवन्मुक्ति प्राप्त होती है। उसके पश्चात् क्रमसे सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति और व्युपरत क्रिया निवृत्ति नामक शुक्लध्यान होते हैं । अन्तिम शुक्लध्यानसे सब कर्मोका क्षय होकर सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे युक्त परम मुक्ति प्राप्त होती है ॥२४॥ इस प्रकार पं. आशाधर रचित धर्मामुतके अन्तर्गत अनगारधर्मामृतकी भव्यकुमुद चन्द्रिका टीका तथा ज्ञानदीपिका पंजिकाकी अनुगामिनी हिन्दी टीकामें ज्ञानाराधनाधिगम नामक तृतीय अध्याय समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary:org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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