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________________ तृतीय अध्याय २१५ नन्तरभाविनोऽमरभावस्य तच्छन्दाभिधेयत्वात् । सुमनसः - प्रसन्नचित्ता देवाश्च । अमराः - मृत्युरहिताः । मृत्युश्चात्र पुनर्भरणमपमृत्युश्च ||१९|| अथ मनसो चञ्चलत्वमनूद्य तन्निग्रहेण स्वाध्यायप्रणिधानादतिदुर्द्धरस्यापि संयमस्य सुवहत्वं निरूपयितुं श्लोकत्रयमाह लातुं वनमत्स्यवद् गमयितुं मार्गे विदुष्टाश्वव निम्नाद्रोद्धुमगापगौध इव यन्नो वाञ्छिताच्छक्यते । दूरं यात्यनिवारणं यदवद् द्राग्वायुवच्चाभितो, नयत्याशु यदब्दवद्बहुविधैर्भृत्वा विकल्पैर्जगत् ॥ २० ॥ वीलन मत्स्यवत् - मसृणत रदेहमत्स्य इव । अगापगौघः - पर्वतनदीपूरः । द्यातीति सम्बन्धः । अब्दवत् — मेधैस्तुल्यम् । विकल्पैः - चिन्ताविवर्तेः भेदैश्च ॥२०॥ नो मूकवद् वदति नान्धवदीक्षते य द्रागारं बधिरवन्न शृणोति तत्त्वम् । यत्रायते यतवचोवपुषोऽपि वृत्तं, क्षिप्रं क्षरत्यवितथं तितओरिवाम्भः ॥ २१ ॥ किं च, अयते - असंयते । तितओ :- चालन्याः ॥ २१ ॥ व्यावर्त्याशुभ वृत्तितो सुनयवन्नीत्वा निगृह्य त्रपां, अभितः Jain Education International :-समन्ता वश्यं स्वस्य विधाय तद्भृतकवत्प्रापय्य भावं शुभम् । स्वाध्याये विदधाति यः प्रणिहितं चित्तं भृशं दुर्धरं, चक्रेशैरपि दुर्वहं स वहते चारित्रमुच्चैः सुखम् ॥२२॥ [ त्रिकलम् ] आगम अवगाहन से उत्पन्न भावागमकी सम्पूर्णता । तथा 'ज्ञानामृतको पीकर अमरता प्राप्त करें' इससे निस्तरण आराधनाको कहा है क्योंकि तत्त्वज्ञानरूप परिणति के अनन्तर होनेवाला अमरत्व निस्तरण शब्दका अभिधेय है ||१९|| मनको अत्यन्त चंचल बतलाकर उसके निग्रह के द्वारा स्वाध्याय में मन लगाने से अति दुर्धर भी संयम सुखपूर्वक धारण किया जा सकता है, यह बात तीन इलोकोंसे कहते हैं जो मन अत्यन्त चिकने शरीरवाले मत्स्यकी तरह पकड़ने में नहीं आता, जिसे दुष्ट घोड़ेकी तरह इष्ट मार्ग पर चलाना अत्यन्त कठिन है, निचले प्रदेशकी ओर जानेवाले पहाड़ी नदी प्रवाहकी तरह इच्छित वस्तुकी ओर जानेसे जिसे रोकना अशक्य है, जो परमाणुकी तरह विना रुके दूर देश चला जाता है, वायुकी तरह शीघ्र ही सब ओर फैल जाता है, शीघ्र ही नाना प्रकारके विकल्पोंसे जगत्को भरकर मेघकी तरह नष्ट हो जाता है, इष्ट तत्त्वको विषय के प्रति रागसे पीड़ित होनेपर गूँगेकी तरह कहता नहीं है, अन्धेकी तरह देखता नहीं है, बहरेकी तरह सुनता नहीं है तथा जिसके अनियन्त्रित होनेपर वचन और कायको वश में कर लेनेवाले पुरुषका सच्चा चारित्र भी चलनीसे जलकी तरह शीघ्र ही खिर जाता है, उस अत्यन्त दुर्धर मनको जो प्रमादचर्या, कलुषता, विषयलोलुपता आदि अशुभ प्रवृत्तियोंसे हटाकर, दुर्जन पुरुषकी तरह ज्ञान संस्कार रूपी दण्डके बलसे निग्रह करके, लज्जित करके, खरीदे हुए दासकी तरह अपने वशमें करके शुभ भावोंमें लगाकर स्वाध्याय में एकाग्र करता है, वह चक्रवर्तियोंसे भी धारण किये जाने में अशक्य उच्च चारित्रको सुखपूर्वक धारण करता है || २०-२२ ॥ For Private & Personal Use Only ३ ९ १२ १५ १८ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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