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धर्मामृत ( अनगार) अथ सम्यक्त्वज्ञानयोः सम्पूर्णत्वेऽपि सति चारित्रासम्पूर्णतायां परममुक्त्यभावमावेदयति
परमावगाढसुदृशा परमज्ञानोपचारसंभृतया।
रक्ताऽपि नाप्रयोगे सुचरितपितुरीशमेति मुक्तिश्रीः ॥२॥ परमावगाढसुदृशा-अचलक्षायिकसम्यक्त्वेन । अतिचतुरदूत्या च उपचारः-कामितालङ्कारादिसत्कारः। रक्ता-अनुकूलिता उत्कण्ठिता च। अप्रयोगे-सयोगत्वाघातिकर्मतीव्रोदयत्वस्वरूपातिचारसद्भावादसंपूर्णत्वेऽसंप्रदाने च। ईशं-जीवन्मुक्तं वरयिष्यन्तं च नायकम् । मुक्तिश्री:-परममुक्तिः । अत्र उपमानभूता कुलकन्या गम्यते ॥२॥ अथ लसद्विद्येति समर्थयितुमाह
ज्ञानमज्ञानमेव स्याद्विना सद्दशनं यथा।
चारित्रमप्यचारित्रं सम्यग्ज्ञानं विना तथा ॥३॥ व्याख्यातप्रायम् ॥३॥ भूयोऽपि
हितं हि स्वस्य विज्ञाय श्रयत्यहितमुज्झति ।
तद्विज्ञानं पुनश्चारि चारित्रस्याधमानतः॥४॥ अघं-कर्म । आध्नतः-निर्मूलयतः ॥४॥
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके सम्पूर्ण होनेपर भी चारित्रकी पूर्णता न होनेपर परममुक्ति नहीं हो सकती, यह कहते हैं
- केवलज्ञानरूपी उपचारसे परिपुष्ट परमावगाढ़ सम्यग्दर्शनके द्वारा अनुकूल की गयी भी मुक्तिश्रीरूपी कन्या सम्यक्चारित्ररूपी पिताके द्वारा न दिये जानेपर सयोगकेवलीरूपी वरके पास नहीं जाती ॥२॥
विशेषार्थ--परममुक्ति कुलीन कन्याके तुल्य है। और समस्त मोहनीय कर्मके क्षयसे उत्पन्न होनेके कारण सदा निर्मल आत्यन्तिक क्षायिक चारित्र पिताके तुल्य है । जीवन्मुक्त केवलज्ञानी वरके तुल्य है। केवलज्ञान इच्छित वस्त्र-अलंकार आदिसे किये गये सत्कारके तल्य है। और परमावगाढ सम्यग्दर्शन चतर दतीके तल्य है। जैसे चतर दतीके द्वारा भोगके लिए आतुर भी कुलकन्या पिताके द्वारा कन्यादान किये बिना इच्छित वरके पास नहीं जाती वैसे ही परमावगाढ सम्यक्त्व और केवलज्ञानके द्वारा अवश्य प्राप्त करने की स्थितिमें लाये जानेपर भी परममुक्ति अघातिकर्मोंकी निर्जरामें कारण समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति नामक परम शुक्लध्यानके प्राप्त न होनेसे क्षायिक चारित्रके असम्पूर्ण होनेके कारण सयोगकेवलीके पास नहीं आती। इससे उत्कृष्ट चारित्रकी आराधनाको परममुक्तिका साक्षात् कारण कहा है ॥२॥
आगे ज्ञानपूर्वक चारित्रका समर्थन करते हैं
जैसे सम्यग्दर्शनके बिना ज्ञान अज्ञान होता है वैसे ही सम्यग्ज्ञानके बिना चारित्र भी चारित्राभास होता है ॥३॥
पुनः उक्त कथनका ही समर्थन करते हैं
यतः मुमुक्षु अपने हित सम्यग्दर्शन आदिको अच्छी तरहसे जानकर अपने अहित मिथ्यात्व आदिको छोड़ देता है। अतः विज्ञान कर्मका निर्मूलन करनेवाले चारित्रका अगुआ है-चारित्रसे पहले ज्ञान होता है ॥४॥
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