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धर्मामृत ( अनगार) अथ तपसः समीहितार्थसाधकत्वं ज्ञानं विना न स्यादिति दर्शयतिविभावमरुता विपद्वति चरद भवाब्धौ सुरुक् ,
प्रभं नर्यात कि तपःप्रवहणं पदं प्रेप्सितम् । हिताहितविवेचनादवहितः प्रबोधोऽन्वहं,
प्रवृत्तिविनिवृत्तिकृद्यदि न कर्णधारायते ॥१६॥ विभावमरुता-रागाद्यावेशवायुना । विपद्वति-आपबहुले । सुरुक्-बहुक्लेशं । अवहितःअवधानपरः ।।१६।।
अथ ज्ञानस्योद्योतना (-द्या-) राधनात्रितयमाह
रूप
दो सींग एक साथ उगते हैं अतः उनमें कार्यकारण भाव नहीं है। उसी तरह सम्यग्दर्शनके साथ ही सम्यग्ज्ञान होता है तब उनमें कार्यकारण भाव कैसे हो सकता है तो उत्तर देते हैं कि दीपक और उसके प्रकाशकी तरह एक साथ होनेपर भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें कार्यकारण भाव है ॥१५॥
विशेषार्थ-सम्यक्त्वके अभाव में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान कुमति और कुश्रुत होते हैं। किन्तु सम्यग्दर्शनके होते ही वे मतिज्ञान श्रुतज्ञान कहलाते हैं। अतः वे ज्ञान तो पहले भी थे किन्तु उनमें सम्यक्पना सम्यग्दर्शनके होनेपर हुआ। कहा है-'दुरभिनिवेसविमुक्कं गाणं सम्म खु होदि सदि जम्हि'-द्रव्य सं. गा. ४१। उस सम्यक्त्वके होनेपर ही ज्ञान मिथ्या अभिप्रायसे रहित सम्यक होता है। अतः सम्यग्दर्शन कारणरूप है और सम्यग्ज्ञान कार्य
इसपर यह प्रश्न होता है कि कारण पहले होता है काये पीछे होता है। किन्तु सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान तो एक साथ होते हैं अतः कार्यकारण भाव कैसे हो सकता है। उसका समाधान ऊपर किया है । पुरुषार्थसि. ३४ में कहा भी है
'यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक ही समय उत्पन्न होते हैं फिर भी उनमें कार्य-कारण भाव यथार्थ रूपसे घटित होता है। जैसे दीपक और प्रकाश एक ही समय उत्पन्न होते हैं फिर भी दीपक प्रकाशका कारण है और प्रकाश उसका कार्य है क्योंकि दीपकसे प्रकाश होता है' ।।१५।।
आगे कहते हैं कि ज्ञानके बिना तप इच्छित अर्थका साधक नहीं होता
यदि हित और अहितका विवेचन करके हितमें प्रवृत्ति और अहितसे निवृत्ति करनेवाला प्रमादरहित ज्ञान प्रतिदिन कर्णधारके समान मार्गदर्शन न करे तो रागादिके आवेशरूप वायुसे क्लेशपूर्ण विपत्तिसे भरे संसाररूपी समुद्र में चलनेवाला तपरूपी जहाज क्या मुमुक्षुको इच्छित स्थानपर पहुँचा सकता है अर्थात् नहीं पहुँचा सकता ॥१६।।
विशेषार्थ-जैसे वायुसे क्षुब्ध समुद्र में पड़ा हुआ जहाज प्रतरण कलामें कुशल नाविक की मददके बिना आरोहीको उसके गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुँचा सकता, वैसे ही हिताहित विचारपूर्वक हितमें प्रवृत्ति करानेवाले और अहितसे निवृत्ति करानेवाले ज्ञानकी मददके विना ज्ञानशून्य तप भी मुमुक्षुको मोक्ष नहीं पहुंचा सकता ॥१६।।
सम्यग्ज्ञानकी उद्योतन आदि तीन आराधनाओंको कहते हैं
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