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तृतीय अध्याय
२१३ ज्ञानावृत्युदयाभिमात्युपहितैः संदेहमोहभ्रमैः,
स्वार्थभ्रंशपरेवियोज्य परया प्रोत्या श्रुतश्रीप्रियाम् । प्राप्य स्वात्मनि यो लयं समयमप्यास्ते विकल्पातिगः,
सद्यः सोऽस्तमलोच्चयश्चिरसपोमात्रश्रमैः काम्यते ॥१७॥ अभिघातिः-शत्रुः । वियोज्य-सन्देहादिभिस्त्याजयित्वा इत्यर्थः । एतेनोद्योतनमुक्तं, प्राप्यनीत्वा । लयं-एकत्वपरिणतिमाश्लेषं च । एतेनोद्यवनमुक्तम् । समयमपि-एकमपि क्षणमल्पकालमपीत्यर्थः । आस्ते-परमानन्देन तिष्ठतीत्यर्थः । एतेन निर्वहणं भणितम् । सद्य इत्यादि । उक्तं च
'जं अण्णाणी कम्म खवेइ भवसयसहस्सकोडीहिं। __ तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेइ 'णिमिसद्धमत्तेण ।। [ ] चिरेत्यादि-चिरंबहुकालं तपोमात्रे ज्ञानाराधनारहितकायक्लेशाद्यनुष्ठाने श्रमोऽभ्यासो येषाम् ॥१७॥ अथ बोधप्रकाशस्य दुर्लभत्वमाह
ज्ञानावरण कर्मके उदयरूप शत्रुके द्वारा उत्पन्न किये गये संशय विपर्यय और अनध्यवसायरूप मिथ्याज्ञान पुरुषार्थको नष्ट करते हैं। इनके रहते हुए यथार्थ वस्तु-स्वरूपका बोध नहीं हो सकता। अतः श्रुतज्ञान भावनारूपी प्रियाको इनसे वियुक्त करके अत्यन्त प्रीतिके साथ उसे जो अपनी आत्मामें लय करके एक क्षणके लिए भी निर्विकल्प होता है उसके कर्ममल तत्काल निर्जीण हो जाते हैं । और जो ज्ञानाराधनासे शून्य कायक्लेशरूप तपमें चिरकालसे लगे हैं वे भी उसकी अनमोदना करते हैं कि यह व्यक्ति ठीक कर रहा है ॥१७॥
विशेषार्थ-यहाँ ज्ञानावरण कर्मके उदयको शत्रुकी उपमा दी है; क्योंकि वह शत्रुके समान सदा अपकारमें ही तत्पर रहता है। 'एक मेरी आत्मा ही शाश्वत है' इत्यादि श्रुतज्ञान भावनाको प्रियपत्नीकी उपमा दी है क्योंकि वह अपने स्वामीको प्रगाढ आनन्द देनेवाली है । जैसे ज्ञानी राजा अपने शत्रुओंके द्वारा प्रेषित व्यक्तियोंके फन्देमें फंसी अपनी प्रियपत्नीको उनसे छुड़ाकर बड़े प्रेमके साथ उसे अपने में लय करके आनन्दमग्न हो जाता है उसी तरह ज्ञानका उद्योतन, उद्यवन और निवहण करनेवाला मुमुक्षु अपनी ज्ञान भावनाको ज्ञानावरण कर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले संशय आदिसे मुक्त करके यदि उसमें एक क्षणके लिए भी लीन होकर निर्विकल्प हो जाये-'यह क्या है, कैसा है, किसका है, किससे है, कहाँ है, कब है' इत्यादि अन्तर्जल्पसे सम्पृक्त भावना जालसे रहित हो जाये तो उसके कर्मबन्धन तत्काल कट जाते हैं। कहा भी है-'अज्ञानी जीव लाख-करोड़ भवोंमें-जितना कर्म खपाता है, तीन गुप्तियोंका पालक ज्ञानी उसे आधे निमेष मात्रमें नष्ट कर देता है।'
यहाँ ज्ञानावरण कर्मके उदयसे होनेवाले संशय आदिको दूर करना ज्ञानका उद्योतन है। परम प्रीतिपूर्वक श्रुतज्ञान भावनाको प्राप्त करके आत्मामें लय होना ज्ञानका उद्यवन है
और एक समयके लिए निर्विकल्प होना ज्ञान का निर्वहण है । इस प्रकार ज्ञानकी तीन आराधनाओंका कथन किया है ।।१७।
__ ज्ञानके प्रकाशको दुर्लभ बतलाते हैं
१. अभिभाति भ. कु. च. टी. । २. 'उस्सासमेत्तेण'-प्रव. सा. ३।३८ । 'अंतोमुहुत्तेण, भ. आ. १०८ ।
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