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________________ तृतीय अध्याय २११ सूक्ष्मार्थदर्शि । निकाचितं-अर्यावगाढम् । सावं-सर्वहितम् । अनुत्तरं परमोत्तमम् । बृजिनहत्पापापहारि । उपासितु:-साधुत्वेन सेवमानस्य ॥१३॥ अथाष्टधा विनयं ज्ञानाराधनार्थमाह ग्रन्थार्थतद्वयः पूर्ण सोपधानमनिह्नवम् । विनयं बहुमानं च तन्वन् काले श्रुतं श्रयेत् ॥१४॥ सोपधानं-यथाविहितनियमविशेषसहितम् । अनिह्नवं-गुर्वाद्यपह्नवरहितम् । काले यथाविहिते ६ सन्ध्याग्रहणादिवजिते ॥१४॥ अथ सम्यक्त्वानन्तरज्ञानाराधने हेतुमाह आराध्य दर्शनं ज्ञानमाराध्यं तत्फलत्वतः। सहभावेऽपि ते हेतुफले दीपप्रकाशवत् ॥१५॥ स्पष्टम् ॥१५॥ और अहितके परिहारका ज्ञान होता है, ३. मिथ्यात्व आदिसे होनेवाले आस्रवका निरोधरूप भाव संवर होता है अर्थात् शुद्ध स्वात्मानुभूतिरूप परिणाम होता है, ४. प्रति समय संसारसे नये-नये प्रकारकी भीरुता होती है, ५. व्यवहार और निश्चयरूप रत्नत्रयमें अवस्थिति होती है उससे चलन नहीं होता, ६. रागादिका निग्रह करनेवाले उपायोंमें भावना होती है और ७. परको उपदेश देनेकी योग्यता प्राप्त होती है ॥१३।। ज्ञानकी आराधनाके लिए आठ प्रकारकी विनय कहते हैं ग्रन्थपूर्णता, अर्थपूर्णता, उभयपूर्णता, सोपधानता, अनिह्नव, विनय और बहुमानके साथ योग्यकालमें मुमुक्षुको जिनागमका अभ्यास करना चाहिए ॥१४॥ विशेषार्थ-ज्ञानकी आराधना विनयपूर्वक करनी चाहिए। विनयके आठ अंग हैंउसमें सबसे प्रथम तो ज्ञानके तीन अंग हैं-ग्रन्थरूप, अर्थरूप और उभयरूप । इन तीनोंकी पूर्णता होनी चाहिए । जिस ग्रन्थका स्वाध्याय किया जाये उसका शुद्ध वाचन हो, उसके अर्थका सम्यक् अभ्यास हो-गूढ़ अर्थ भी छिपा न रहे, इन दोनोंकी पूर्णता होनी चाहिए, शब्द और अर्थ दोनोंकी सम्पूर्ण जानकारी होनी चाहिए। शेष पाँच ज्ञानकी आराधनाके अंग हैं-ज्ञानकी आराधनाकी जो विधि-नियम आदि कहे हैं उनके साथ आराधना करना सोपधानता है । जिनसे शास्त्रज्ञान प्राप्त किया हो उन गुरु आदिका नाम न छिपाना अनिह्नव है। ज्ञानका माहात्म्य प्रकट करनेके लिए जो कुछ प्रयत्न किया जाता है वह विनय है । ज्ञानका, ज्ञानके साधन शास्त्र, गुरु, पाठशाला आदिका खूब आदर-सत्कार करना बहुमान है। तथा योग्य कालमें ही स्वाध्याय करना चाहिए, सन्ध्यासमय और चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहणके सिद्धान्त ग्रन्थोंका स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । अकलंक देवने तत्त्वार्थवार्तिक (१।२०।१४) में अंगबाह्यके कालिक-उत्कालिक आदि भेद किये हैं। जिसका स्वाध्यायकाल नियत है उसे कालिक कहते हैं और जिसका काल नियत नहीं है उसे उत्कालिक कहते हैं। आचार्य वीरनन्दिने आचारसारके चतुर्थ अधिकारमें कालादि शुद्धिपूर्वक स्वाध्यायका कथन करते हुए पुराण, आराधना, पंचसंग्रह आदिके अध्ययनको इस नियमसे वर्जित रखा है ॥१४॥ सम्यक्त्वकी आराधनाके पश्चात् ज्ञानकी आराधना करनेका कारण बतलाते हैं मुमुक्षुको सम्यग्दर्शनकी आराधना करनेके पश्चात् श्रुतज्ञानकी आराधना करनी चाहिए क्योंकि सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनका कार्य है। इसपर प्रश्न हो सकता है कि जैसे गायके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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