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द्वितीय अध्याय
इति-अनेनानन्तरोक्तेनोद्योतनाद्युपायपञ्चकप्रयोगलक्षणेन प्रकारेण इति भद्रम् । होनेवाले सम्यक्त्वको क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं । मिथ्यात्व आदि छह प्रकृतियोंका उपशम होने पर और शुभ परिणामोंके द्वारा सम्यक्त्व प्रकृतिके स्वरसका निरोध होनेपर वेदक सम्यक्त्व होता है। सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयके साथ होनेसे इसका नाम वेदक है क्योंकि इसमें उसका वेदन-अनुभवन होता है। यह सम्यक्त्व ही व्यवहारमार्गी है क्योंकि इसमें उद्योतन आदि आराधनाओंका स्पष्ट रूपसे अनुभव होता है । क्षायिक सम्यग्दर्शन या तो औपशमिक सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है या वेदक सम्यक्त्वपूर्वक होता है। इसीसे इनमें और क्षायिक सम्यग्दर्शनमें साध्य-साधन भाव है। पहले दो सम्यक्त्व साधन हैं और क्षायिक सम्यक्त्व साध्य है । यह क्षायिक सम्यक्त्व मुक्ति की प्रियदूती है। अत्यन्त मान्य होनेसे जिसके वचन अनुल्लंघ्य होते हैं वह इष्टदूती होती है। क्षायिक सम्यक्त्व होनेपर कभी छूटता नहीं है उसी भवमें या तीसरे भवमें नियमसे मुक्तिकी प्राप्ति होती है । - अकलंक देवने कहा है कि श्रुतसे अनेकान्तरूप जीवादि पदार्थों को जानकर, नयोंके द्वारा व्यावहारिक प्रयोजनके साधक उन-उन अनेक धर्मोंकी परीक्षा करे । फिर नाम, स्थापना आदि स्वभावसे भिन्न जीवादि द्रव्योंके जाननेमें कारणभूत नय निक्षेपोंके द्वारा श्रुतके द्वारा विवक्षित द्रव्य-भावरूप अर्थात्मक, नामरूप वचनात्मक और स्थापनारूप प्रत्ययात्मक भेदोंकी रचना करके निर्देश स्वामित्व आदि भेदवाले अनुयोगोंके द्वारा जीवादि रूप तत्त्वोंको जानकर अपने सम्यग्दर्शनको पुष्ट करे। इस तरह जीवसमास, गुणस्थान और मार्गणास्थानोंके रहस्यको जानकर तपके द्वारा कर्मोकी निर्जरा करके मुक्त होकर सुखको प्राप्त करता है । अर्थात् तत्त्वको जाननेके जो उपाय प्रमाण, नय, निक्षेप, सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व आदि बतलाये हैं उन सबको जानकर उनके द्वारा गुणस्थान और मार्गणास्थानको जानकर जीवकी विविध दशाओंको हृदयंगम करनेसे सम्यक्त्वका पोषण होता है । इसीसे परमागममें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा
और उपयोग इन बीस प्ररूपणाओंके द्वारा जीव तत्त्वका विवेचन करके संसारी जीवके स्वरूपका चित्रण किया है। उपादेयकी तरह हेयको भी जानना आवश्यक है । हेयको जाननेसे उपादेयमें आस्था दृढ़ होती है। इसीसे आचार्य कुन्दकुन्दने जहाँ समयसार-जैसे अध्यात्म प्रधान ग्रन्थको रचा वहाँ षट्खण्डागम-जैसे सिद्धान्त ग्रन्थपर भी परिकर्म नामक व्याख्या ग्रन्थ रचा । अतः मुमुक्षुके लिए एकमात्र समयसार ही पठनीय नहीं है, किन्तु चारों अनुयोग
१. 'श्रुतादर्थमनेकान्तमधिगम्याभिसन्धिभिः ।
परीक्ष्य तांस्तांस्तद्धर्माननेकान् व्यावहारिकान् । नयानुगतनिक्षेपैरुपायैर्भेदवेदने । विरचय्यार्थवाक्प्रत्ययात्मभेदान् श्रुतापितान् । अनुयोज्यानुयोगैश्च निर्देशादिभिदां गतः। द्रव्याणि जीवादीन्यात्मा विवृद्धाभिनिवेशतः ।। जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानतत्त्ववित् । तपोनिर्जीर्णकर्माऽयं विमुक्तः सुखमृच्छति ॥'
-लघीयस्त्रय. ७३-७६ ।
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