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धर्मामृत ( अनगार) अथैवमुद्योतनपूर्वकस्य सम्यग्दर्शनोद्यवनाचाराधनोपायचतुष्टयस्य प्रयोक्तुः फलमाचष्टे
इत्युदयोत्त्य स्वेन सुष्ट्वेकलोलीकृत्याक्षोभं बिभ्रता पूर्यते दृक् ।
येनाभीक्ष्णं संस्क्रियोद्येव बीजं तं जीवं सान्वेति जन्मान्तरेऽपि ॥११३॥ स्वेन-आत्मना सह। एकलोलीकृत्य-मिश्रयित्वा। उद्यवनार्थमिदम् । अक्षोभं बिभ्रतानिराकुलं वहता। निर्वहणार्थमिदम। पर्यते-साध्यते । साधनाराधनषा । अभीक्ष्णं-पनः पनः । संस्क्रिया६ मंजिष्ठादिरागानुवेधः । बीजं--कार्पासादिप्ररोहणम । जन्मान्तरेऽपि तदभवे मोक्षेऽपि च इत्यपि शब्दार्थः । पक्षे तु पुनः प्रादुर्भावेऽपि ॥११३॥ अथ क्षायिकेतरसम्यक्त्वयोः साध्यसाधनभावं ज्ञापयति
सिद्धयौपशमिक्येति दृष्टया वैदिकयापि च। क्षायिकी साधयेद् दृष्टिमिष्टदूती शिवश्रियः ॥११४॥
किन्तु सम्यक्त्व सम्यक्त्वकी तरह ही मनोरथोंको पूरा करता है उसे राज्यकी उपमा नहीं देना चाहिए । उसका माहात्म्य तो लोकोत्तर है ॥११२।।।
इस प्रकार उद्योतनपूर्वक सम्यग्दर्शनकी आराधनाके उद्यवन आदि चार उपायोंके कर्ताको जो फल प्राप्त होता है उसे कहते हैं
जैसे कपास आदिके बीजमें मंजीठके रंगका अन्तरंग-बहिरंगव्यापी योग कर देनेपर वह योग बीजके उगनेपर भी उसमें रहता है, वैसे ही उक्त प्रकारसे सम्यग्दर्शनको निर्मल करके आत्माके साथ दृढ़तापूर्वक एकमेक करके निराकुलतापूर्वक धारण करते हुए जो प्रतिक्षण सम्यग्दर्शनको सम्पूर्ण करता है, उस जीवका वह सम्यग्दर्शन न केवल उसी पर्यायमें किन्तु जन्मान्तरमें भी अनुसरण करता है ॥११३।।
विशेषार्थ-सिद्धान्तमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप प्रत्येककी पाँच-पाँच आराधनाएँ प्रसिद्ध है । उक्त श्लोकमें उन्हींका कथन है, यथा-'उद्योत्य'-निर्मल करके, पदके द्वारा सम्यग्दर्शनकी उद्योतन नामक आराधना जानना । 'आत्माके साथ एकमेक करके इस पदके द्वारा उद्यवन आराधना कही है। 'निराकुलतापूर्वक धारण करते हुए' इन शब्दोंके द्वारा निर्वहण आराधना कही है। 'प्रतिक्षण पूर्ण करता है' इस पदके द्वारा साधन और 'उस जीवको' इत्यादि पदके द्वारा निःसरण आराधना कही है॥११३॥
आगे क्षायिक सम्यक्त्व तथा शेष दो सम्यक्त्वोंमें साध्य-साधन भाव बतलाते हैं
अनन्तर कहे गये उद्योतन आदि पाँच उपायोंके प्रयोगके द्वारा निष्पन्न औपशमिकरूप सम्यग्दर्शनके और वेदक सम्यक्त्वके द्वारा अनन्त ज्ञानादि चतुष्टयरूप जीवन्मुक्ति और परममुक्तिकी प्रियदूती क्षायिक दृष्टिको साधना चाहिए ॥११४॥
विशेषार्थ-विपरीत अभिनिवेशसे रहित आत्मरूप तत्त्वार्थश्रद्धानको दृष्टि या सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व कहते हैं। उसके तीन भेद हैं-औपशमिक, वेदक या क्षायोपशमिक
और क्षायिक। मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व नामक दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंके और अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोमा। इन चार चारित्रमोहनीयकी प्रकृतियों के उपशमसे होनेवाले सम्यक्त्वको औपशमिकल्सम्यान कहते हैं। इन्हीं साता प्रकृतियोंके क्षेयसे
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