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________________ द्वितीय अध्याय १९३ अथ प्रकारान्तरेण सम्यक्त्वविनयमाह धन्योऽस्मीयमवापि येन जिनवागप्राप्त पूर्वा मया, __ भो विष्वगजगदेकसारमियमेवास्यै नखच्छोटिकाम् । यच्छाम्युत्सुकमुत्सहाम्यहमिहैवायेति कृत्स्नं युवन्, श्रद्धाप्रत्ययरोचनैः प्रवचनं स्पृष्टया च दृष्टि भजेत् ॥१११।। उत्सुकं-सोत्कण्ठम् । युवन्-मिश्रयन् योजयन्नित्यर्थः । स्पृष्टया-स्पर्शनेन । उक्तं च 'सद्दहया पत्तियआ रोचयफासंतया पवयणस्स। सयलस्स जे णरा ते सम्मत्ताराहया होति ।।' [ भा. आ. ७ ] ॥१११॥ अथाष्टाङ्गपुष्टस्य संवेगादिविशिष्टस्य च सम्यक्त्वस्य फलं दृष्टान्ताक्षेपमुखेन स्फुटयति पुष्टं निःशङ्कितत्वाधैरङ्गैरष्टाभिरुत्कटम् । संवेगादिगुणः कामान् सम्यक्त्वं दोग्धि राज्यवत् ॥११२॥ निःशङ्कितत्वाद्यः-निःशङ्कितत्व-निष्कांक्षितत्व-निर्विचिकित्सत्व • अमूढदृष्टित्वोपगृहन-स्थितीकरण- १२ वात्सल्य-प्रभावनाख्यः अङ्गः माहात्म्यसाधनैः अष्टाभिः । राज्यं तु स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गबलाख्यः सप्तभिरङ्गैः पुष्टमिति ततोऽस्य व्यतिरेकः । उत्कटम् । राज्यं तु संधिविग्रहयानासनद्वैधीभावंसंश्रयः षडिभरेव गुणविशिष्टं स्यात् । अत एव काक्वा राज्यवत् सम्यक्त्वं मनोरथान् पूरयति ? नैवं पूरयति । तहि सम्यक्त्वमिव १५ पुरयति इति लोकोत्तरमस्य माहात्म्यमाविष्करोति ॥११२॥ प्रकारान्तरसे सम्यक्त्वकी विनय कहते हैं मुमुक्षुको श्रद्धा, प्रत्यय, रोचन और स्पर्शनके द्वारा समस्त जिनागमको युक्त करते हुए सम्यग्दर्शनकी आराधना करनी चाहिए। मैं सौभाग्यशाली हूँ क्योंकि मैंने अभी तक संसारमें रहते हुए भी न प्राप्त हुई जिनवाणीको प्राप्त किया। इस प्रकार अन्तरंगसे श्रद्धान करना श्रद्धा है । अहो, यह जिनवाणी ही समस्त लोकमें एकमात्र सारभूत है इस प्रकारकी भावना प्रत्यय है। इसी जिनवाणीके लिए मैं नखोंसे चिऊँटी लेता हूँ। (अँगूठा और उसके पासकी तर्जनी अँगलीके नखोंसे अपने प्रियके शरीर में चिऊँटी लेनेसे उसमें रुचि व्यक्त होती है)। यही रोचन है । आज उत्कण्ठाके साथ मैं उसी जिनवाणीमें उत्साह करता हूँ यह स्पर्शन है ॥१११॥ विशेषार्थ-कहा भी है-'जो मनुष्य समस्त जिनागमका श्रद्धान, प्रत्यय, रोचन और स्पर्शन करते हैं वे सम्यक्त्वके आराधक होते हैं ॥१११॥ ___आठ अंगोंसे पुष्ट और संवेग आदिसे विशिष्ट सम्यक्त्वका फल दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं निःशंकित आदि आठ अंगोंसे पुष्ट और संवेग आदि आठ गुणोंसे प्रभावशाली सम्यग्दर्शन राज्यकी तरह मनोरथोंको पूर्ण करता है ॥११२॥ विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य, प्रभावना इन आठ गुणोंसे पुष्ट होता है और संवेग, निर्वेद, गर्दा, निन्दा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा नामक आठ गुणोंसे अत्यन्त प्रभावशाली होता है। किन्तु राज्य, स्वामी, मन्त्री, मित्र, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना इन सात ही अंगोंसे पुष्ट होता है तथा सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और आश्रय इन छह गुणोंसे प्रभावशाली होता है । इससे स्पष्ट है कि राज्यसे सम्यक्त्व बलशाली है। अतः अर्थ करना चाहिए-क्या राज्यकी तरह सम्यक्त्व मनोरथोंको परा करता है ? अर्थात् पूरा नहीं करता। २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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