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________________ १९२ धर्मामृत (अनगार ) 'भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स । आसादणपरिहारो दंसणविणओ समासेण ॥' [ भग. आ. ४६-४७ ]॥ ११०॥ सदा वर्तमान रहता है। विशेष रूपसे रहित चैतन्य आकाशके फूलकी तरह असत् है । प्रकृति तो अचेतन है उसके लिए मुक्ति अनुपयोगी है। प्रकृति के बँधने या छूटने से आत्माका क्या ? इस प्रकार सांख्य मतमें सिद्धपना सम्भव नहीं है । नैयायिक वैशेषिक सिद्ध अवस्था में बुद्धि आदि विशेष गुणों का अभाव मानते हैं। कौन समझदार आत्माको जड़ बनाना पसन्द करेगा । तथा विशेष गुणोंसे शून्य आत्माकी सत्ता कैसे सम्भव है ? जो बुद्धि आदि विशेष गुणोंसे रहित है वह तो आत्मा ही नहीं है जैसे भस्म । इस प्रकार अन्य मतोंमें कथित सिद्धों का स्वरूप नहीं बनता । अतः बाधा करनेवाले समस्त कर्मलेपके विनाशसे उत्पन्न हुए निश्चल स्वास्थ्य में स्थित और अनन्त ज्ञानात्मक सुखसे सन्तुष्ट सिद्ध होते हैं । इस प्रकार सिद्धों के माहात्म्यका कथन सिद्धोंका वर्णजनन है । जैसे वीतरागी, वीतद्वेषी, त्रिलोकके चूड़ामणि भव्य जीवों के शुभोपयोग में कारण होते हैं । उसी प्रकार उनके बिम्ब भी होते हैं । बाह्य द्रव्यके अवलम्बनसे ही शुभ और अशुभ परिणाम होते हैं । जैसे आत्मामें इष्ट और अनिष्ट विषयोंके सान्निध्य से राग-द्वेष होते हैं, अपने पुत्रके समान व्यक्तिका दर्शन पुत्रके स्मरणका आलम्बन होता है । इसी तरह प्रतिबिम्बको देखकर अर्हन्त आदिके गुणोंका स्मरण होता है । वह स्मरण नवीन अशुभ कर्मोंका आस्रव रोकने में, नवीन शुभकर्मों के बन्धमें, बँधी हुई शुभ प्रकृतियों के अनुभागको बढ़ाने में और पूर्वबद्ध अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागको घटाने में समर्थ है । इसलिए जिनबिम्बोंकी उपासना करना चाहिए। इस प्रकार बिम्बकी महत्ताका प्रकाशन बिम्बका वर्णजनन है । श्रत केवलज्ञानकी तरह समस्त जीवादि द्रव्योंका यथार्थ स्वरूप प्रकाशन करने में समर्थ है। कर्मरूपी तापका निर्मूलन करने में तत्पर शुभध्यानरूपी चन्दन के लिए मलयगिरिके समान है, स्व और परका उद्धार करनेमें लीन विद्वानोंके द्वारा मनसे आराधनीय है, अशुभ आस्रवको रोकता है, अप्रमत्तता लाता है, सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष ज्ञानका बीज है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानमें प्रवृत्त कराता है, ऐसा कहना श्रुतका वर्णजनन है । जिन भगवान् के द्वारा उपदिष्ट धर्म दुःखसे रक्षा करनेमें, सुख देने में तथा मोक्षको प्राप्त कराने में समर्थ है। इस प्रकार धर्मके माहात्म्यको कहना धर्मका वर्णजनन है । साधु अनित्य भावना में लीन होनेसे शरीर आदिकी ओर ध्यान नहीं देते, जिनप्रणीत धर्मको ही दुःखोंसे रक्षा करने में समर्थ जानकर उसीकी शरण लेते हैं, कमको ग्रहण करने, उसका फल भोगने और उनको जड़मूलसे नष्ट करनेवाले हम अकेले ही हैं ऐसा उनका दृढ़ निश्चय होता है, न वे सुखसे राग करते हैं और न दुःखसे द्वेष, भूख-प्यासकी बाधा होनेपर भी परिणामोंको संक्लिष्ट नहीं करते, ज्ञान-ध्यानमें तत्पर रहते हैं इस प्रकार साधुके माहात्म्यका प्रकाशन साधुका वर्णजनन है । इसी प्रकार आचार्य और उपाध्यायके माहात्म्यका प्रकाशन उनका वर्णजनन है । रत्नत्रयके लाभसे भव्य जीवराशि अनन्त कालसे मुक्ति लाभ करती आती है इत्यादि कथन मार्गका वर्णजनन है । समीचीन दृष्टि मिध्यात्वको हटाकर ज्ञानको निर्मल करती है, अशुभ गति में जानेसे रोकती है इत्यादि कथन सम्यग्दृष्टिका वर्णजनन है। झूठा दोष लगाने को अवर्णवाद कहते हैं । अर्हन्त सिद्ध आदिमें मिथ्यावादियोंके द्वारा लगाये गये दोषोंका प्रतिवाद करके उन्हें दूर करना चाहिए। आसादना अवज्ञाको कहते हैं । उसे नहीं करना चाहिए । इस प्रकार अर्हन्त आदि में भक्ति आदि करना सम्यक्त्वकी विनय है ॥ ११० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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