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________________ १९१ द्वितीय अध्याय भक्त्यादिकं-भक्ति पूजां वर्णजननमवर्णवादनाशनमत्यासादनपरिहारं च । उक्तं च 'अरहंतसिद्धचेदियसुदे य धम्मे य साहुवग्गे य । आयरियउवज्झायसु पवयणे दंसणे चावि ।' उसे सिद्ध शब्दसे कहा जाता है तो वह आगम द्रव्यसिद्ध है। सिद्धविषयक शास्त्रके ज्ञाताका शरीर ज्ञायकशरीर है। जो भविष्यमें सिद्ध होगा वह भाविसिद्ध है। तद्वतिरिक्त सिद्ध सम्भव नहीं है क्योंकि सिद्धपर्यायका कारण कर्म नहीं है, समस्त कर्मोंके नष्ट हो जानेपर सिद्धपर्याय प्राप्त होती है । पुद्गल द्रव्य सिद्धपर्यायका उपकारक नहीं है इसलिए नोकर्म सिद्ध भी नहीं है। सिद्धविषयक शास्त्रका ज्ञाता जो उसीमें उपयुक्त है वह आगम भावसिद्ध है। जिसके भावकर्म और द्रव्यकर्मरूपी कलंक नष्ट हो गये हैं तथा जिसने सब क्षायिक भावोंको प्राप्त कर लिया है वह नोआगम भावसिद्ध है। उसीका यहाँ ग्रहण है, शेषका नहीं क्योंकि उन्होंने पूर्ण आत्मस्वरूपको प्राप्त नहीं किया है । 'चेदिय' शब्दसे अर्हन्त और सिद्धोंके प्रतिबिम्ब ग्रहण किये हैं अथवा साधु आदिकी स्थापनाका भी ग्रहण किया जाता है । श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ और वस्तुके यथार्थ स्वरूपको ग्रहण करनेवाल श्रद्धानपूर्वक ज्ञान श्रुत है। बारह अंग, चौदह पूर्व और अंगबाह्य ये उसके भेद हैं। अथवा तीर्थकर और श्रुतकेवली आदिके द्वारा रचित वचनसमूह और लिपिरूप अक्षरसमूह भी श्रुत हैं। धर्म शब्दसे समीचीन चारित्र कहा जाता है। वह चारित्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका अनुगत होना चाहिए। उसके सामायिक आदि पाँच भेद हैं । जो दुर्गतिमें पड़े जीवको शुभ स्थानमें धरता है वह धर्म है । अथवा उत्तम-क्षमा आदि रूप दस धर्म है। जो रत्नत्रयका साधन करते हैं वे साधु हैं उनका वर्ग अर्थात् समूह । वस्तुके यथार्थ स्वरूपको ग्रहण करने वाले ज्ञानरूपसे परिणतिको ज्ञानाचार कहते हैं। तत्त्वश्रद्धानरूप परिणामको दर्शनाचार कहते हैं । पापक्रियासे निवृत्तिरूप परिणतिको चारित्राचार कहते हैं। अनशन आदि तप करनेको तप आचार कहते हैं। ज्ञानादिमें अपनी शक्तिको न छिपाने रूप वृत्तिको वीर्याचार कहते हैं। इन पाँच आचारोंको जो स्वयं पालते हैं और दूसरोंसे पालन कराते हैं वे आचार्य हैं। जो रत्नत्रयमें संलग्न हैं और जिनागमके अर्थका सम्यक् उपदेश देते हैं वे उपाध्याय हैं। जिनके पास विनय पूर्वक जाकर श्रुतका अध्ययन किया जाता है वे उपाध्याय हैं । 'पवयण' से प्रवचन लेना। शंका-पहले श्रुत शब्द आया है और श्रुतका अर्थ भी प्रवचन है, अतः पुनरुक्त दोष आता है। समाधान-यहाँ प्रवचन शब्दसे रत्नत्रय लेना चाहिए। कहा है-'ज्ञान, दर्शन और चारित्र प्रवचन है।' अथवा पहले श्रतसे श्रतज्ञान लिया है और यहाँ जीवादि पदार्थ लिये हैं अर्थात् शब्दश्रुत प्रवचन है। दर्शनसे सम्यग्दर्शन लिया है । अर्हन्त आदिके गुणोंमें अनुरागको भक्ति कहते हैं। पूजाके दो प्रकार हैं-द्रव्यपूजा और भावपूजा । अहन्त आदिका उद्देश करके गन्ध, पुष्प, धूप, अक्षत आदिका दान द्रव्यपूजा है। आदरपूर्वक खड़े होना, प्रदक्षिणा देना, नमस्कार आदि करना, वचनसे गुणोंका स्तवन करना भी द्रव्यपूजा है । और मनसे गुणोंका स्मरण करना भावपूजा है । वर्ण शब्दके अनेक अर्थ हैं। यहाँ उनमें-से यश अर्थ लेना चाहिए। विद्वान की परिषद्में अर्हन्त आदिका यश फैलाना, उनके वचनोको प्रत्यक्ष अनुमान आदिक अवरुद्ध बतलाकर महत्ताका ख्यापन करना भगवानका 'वर्णजनन' है। निर्वाणको चैतन्य मात्र में अवस्थिति माननेपर अपर्व अतिशयोंकी प्राप्ति सम्भव नहीं है क्योंकि बिना प्रयत्नके ही सभी आत्माओंमें चैतन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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