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________________ १२० धर्मामृत ( अनगार) 'संवेओ णिव्वेओ जिंदा गरुहा य उवसमो भत्ती। वच्छल्लं अणुकंपा गुणा हु सम्मत्तजुत्तस्स ।।' [भाव सं. २६३-वसुनन्दि. ४९] ॥१०९॥. इति गुणापादनम् । अथ विनयापादनमुच्यते धहिंदादितच्चैत्यश्रुतभक्त्यादिकं भजेत् । दृग्विशुद्धि विवृद्धयर्थ गुणवद्विनयं दृशः ॥११०॥ वसुनन्दि श्रावकाचारमें कहा है 'संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य, अनुकम्पा ये सम्यग्दृष्टिके गुण हैं।' इन्हींका स्वरूप ऊपर कहा है' ॥१०९।। विनय गुणको प्राप्त करनेका उपदेश देते हैं जैसे सम्यग्दर्शनकी निर्मलताको बढ़ानेके लिए उपगूहन आदि गुणोंका पालन किया जाता है वैसे ही धर्म, अर्हन्त आदि, उनके प्रतिबिम्ब और श्रुतकी भक्ति आदिरूप सम्यग्दर्शन की विनयका भी पालन करना चाहिए ॥११०॥ विशेषार्थ-भगवती आराधना (गा. ४६-४७) में जो कहा है उसका विस्तृत व्याख्यान अपराजिताचार्य रचित मूलाराधना टीका तथा पं. आशाधर रचित मूलाराधना दर्पणसे यहाँ दिया जाता है-अरि अर्थात् मोहनीय कर्मका नाश करनेसे, ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मका नाश करनेसे, अन्तराय कर्मका अभाव होनेसे और अतिशय पूजाके योग्य होनेसे 'अहत्' नामको प्राप्त नोआगम भावरूप अहन्तोंका यहाँ ग्रहण है। जो नाममात्रसे अहन्त हैं , उनका ग्रहण यहाँ नहीं है; क्योंकि उनमें 'अरिहनन' आदि निमित्तोंके अभावमें भी बलात् अर्हन्त नाम रख दिया जाता है। अर्हन्तोंके प्रतिबिम्ब भी 'यह यह हैं। इस प्रकारके सम्बन्धसे अर्हन्त कहे जाते हैं । यद्यपि वे अतिशय पूजाके योग्य हैं तथापि बिम्बोंमें 'अरिहनन' आदि गुण नहीं है इसलिए उनका भी यहाँ ग्रहण नहीं है । अर्हन्तके स्वरूपका कथन करनेवाले शास्त्रका ज्ञाता है किन्तु उसमें उपयुक्त नहीं है, अन्य कार्य में लगा है उसे आगम द्रव्य अर्हन्त कहते हैं। उस शास्त्रके ज्ञाताके त्रिकालवर्ती शरीरको ज्ञायक शरीर अर्हन्त कहते हैं। जिस आत्मामें अरिहनन आदि गुण भविष्यमें होंगे उसे भावि अर्हन्त कहते हैं। तीर्थंकर नामकर तद्वयतिरिक्त द्रव्य अर्हन्त है। अर्हन्तके स्वरूपका कथन करनेवाले शास्त्रका ज्ञान और अर्हन्तके स्वरूपका ज्ञान आगमभाव अर्हन्त है । इन सभीमें अरिहनन आदि गुणोंका अभाव होनेसे उनका यहाँ अर्हत् शब्दसे ग्रहण नहीं होता । इसी प्रकार जिसने सम्पूर्ण आत्मस्वरूपको नहीं प्राप्त किया है उसमें व्यवहृत सिद्ध शब्द नामसिद्ध है। अथवा निमित्त निरपेक्ष सिद्ध संज्ञा नामसिद्ध है। सिद्धोंके प्रतिबिम्ब स्थापना सिद्ध हैं। शंका-सशरीर आत्माका प्रतिबिम्ब तो उचित है, शुद्धात्मा सिद्ध तो शरीरसे रहित हैं उनका प्रतिबिम्ब कैसे सम्भव है ? समाधान--पूर्वभाव प्रज्ञापन नयकी अपेक्षासे जो सयोग केवली या इतर शरीरानुगत आत्मा है उसे शरीरसे पृथक् नहीं कर सकते। क्योंकि शरीरसे उसका विभाग करनेपर संसारीपना नहीं रहेगा । अशरीर भी हो और संसारी भी हो यह तो परस्पर विरुद्ध बात है। इसलिए शरीरके आकाररूप चेतन आत्मा भी आकारवाला ही है क्योंकि वह आकारवान्से अभिन्न है जैसे शरीर में स्थित आत्मा । वही सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे सम्पन्न है इसलिए सिद्धोंकी स्थापना सम्भव है । जो सिद्ध विषयक शास्त्रका ज्ञाता उसमें उपयुक्त नहीं है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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