________________
द्वितीय अध्याय
अथान्तरङ्गबहिरङ्गप्रभावनाभावनामाह
रत्नत्रयं परमधाम सदानुबध्नन्
स्वस्य प्रभावमभितोऽद्भुतमारभेत । विद्यातपोयजनदानमुखावदान
वंजादिवज्जिनमतश्रियमुद्धरेच्च ॥१०८॥ अवदानं-अद्भुतकर्म । वज्रादिवत्-बज्रकुमारादयो यथा । जिनमतश्रियं-जिनशासन- ६ माहात्म्यम् । उद्धरेत्-प्रकाशयेत् । उक्तं च
'आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव ।
ज्ञानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ।।' [ पुरुषार्थ. ३० ] ॥१०८॥ अथ प्रकारान्तरण गुणापादनमाह
देवादिष्वनुरागिता भववपुर्भोगेषु नीरागता दुर्वृत्तेऽनुशयः स्वदुष्कृतकथा सूरेः क्रुधाद्य स्थितिः ।
१२ पूजाहत्प्रभृतेः सधर्मविपदुच्छेदः क्षुधाविते
ध्वनिष्वादमनस्कताऽष्ट चिनुयुः संवेगपूर्वा दृशम् ॥१०॥ देवादिषु-देवे गुरौ संघे धर्मे फलदर्शने च । नीरागता-वैराग्यम् । अनुशय:-पश्चात्तापः । १५ क्रुधाद्यस्थितिः-क्रोधादेरस्थिरत्वं, अनन्तानुबन्धिनामभाव इत्यर्थः । चिनुयु:-वर्द्धयेयुः। संवेगपूर्वाः । ते यथाक्रमं यथा
अन्तरंग और बाह्य प्रभावनाको कहते हैं
प्रकृष्ट तेजस्वी रत्नत्रयका सदा अनुवर्तन करते हुए अपने प्रभावको सर्वत्र आश्चर्यजनक रूपसे फैलाना चाहिए। तथा वनकुमारकी तरह विद्या, मन्त्र, तप, जिनपूजा, दान प्रमुख अद्भुत कार्योके द्वारा जिनशासनके माहात्म्यका प्रकाश करना चाहिए ॥१०८।।
विशेषार्थ-जो साधन करनेसे सिद्ध होती है वह विद्या है, जैसे आकाशगामिनी विद्या । जो पाठ मात्रसे सिद्ध हो उसे मन्त्र कहते हैं । इच्छाको रोकना तप है । इस प्रकारके अद्भुत कार्यों द्वारा जैनशासनका माहात्म्य लोकमें प्रकट करना बाह्य प्रभावनांग है । इसमें वज्रकुमार प्रसिद्ध हुए हैं। उन्होंने अष्टाह्निका पर्वमें जैन रथयात्राकी रोकको हटवाकर धर्मका प्रभाव फैलाया था ॥१०८॥
अन्य उपायोंसे भी गुण प्राप्त करनेकी प्रेरणा करते हैं
देव, गुरु, संघ, धर्म और धर्मके फलमें ख्याति आदिकी अपेक्षा न करके किये जानेवाले अनुरागको संवेग कहते हैं। संसार, शरीर और स्त्री आदि भोगोंमें राग न करनाउनसे विरक्त होना वैराग्य है। दुष्ट कार्य हो जानेपर उसका पश्चात्ताप होना निन्दा है। आचार्यके सम्मुख अपने बुरे कार्यको प्रकट करना गर्दा है। क्रोध आदि कषायोंकी अस्थिरताको उपशम कहते हैं। जिनदेव, सिद्ध आदि पूज्य वर्गकी पूजा करना भक्ति है। साधर्मियों पर आयी आपत्तियोंको दूर करना वात्सल्य है। भूख आदिसे पीड़ित प्राणियोंको देखकर हृदयका दयासे द्रवित होना अनुकम्पा है। इस प्रकार ये संवेग आदि आठ गुण सम्यक्त्वको बढ़ाते हैं ॥१०९।।।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनके आठ अंगोंका विवेचन करके अन्य गुणोंका कथन यहाँ किया है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |