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धर्मामृत ( अनगार) एतद् विपर्ययाश्चान्ये अनुपगृहनादयश्चत्वारो दर्शनदोषाः संभवन्ति । अत एव विस्तररुचीन् प्रति पञ्चविंशतिसम्यक्त्वदोषान् व्याचक्षते । तथा चोक्तं
'मूढत्रयं मदाश्चाष्टी तथानायतनानि षट् ।
अष्टौ शंकादयश्चेति, दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ॥' [सोम. उपा., २४१ श्लो.] ॥१०३॥ अथानुपगृहनादिकारिणः सम्यक्त्ववैरिण इत्याचष्टे
यो दोषमुद्धावयति स्वयूथ्ये यः प्रत्यवस्थापयतीममित्ये ।
न योऽनुगृह्णाति न दीनमेनं मागं च यः प्लोषति दृरिद्वषस्ते ॥१०४॥ दोषं-सन्तमसन्तं वा सम्यक्त्वव्यभिचारम् । स्वयूथ्ये-सधर्मणि । प्रत्यवस्थापयति इमं स्वयूथ्यं ९ दर्शनादेः प्रत्यवस्यन्तम् । दीनं-प्रक्षीणपुरुषार्थसाधनसामर्थ्यम् । प्लोषति-दहति माहात्म्याद् भ्रंशयति, निःप्रभावतया लोके प्रकाशयतीत्यर्थः । ते अनुपगृहनास्थितीकरणावात्सल्याप्रभावनाकरिश्वत्वारः क्रमेणोक्ताः ॥१०४॥
___आचार्य कुन्दकुन्दने समयसारके निर्जराधिकारमें, आचार्य समन्तभद्रने रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें सम्यग्दर्शनके आठ अंगोंका विवेचन किया है। पूज्यपाद अकलंक आदिने भी तत्त्वार्थसूत्र ६-२४ की व्याख्यामें सम्यग्दर्शनके आठ अंग गिनाये हैं। किन्तु भगवती आराधनामें सम्यक्त्वके वर्धक चार ही गुण कहे हैं। श्वेताम्बर परम्परामें भी हमें आठ अंगोंका उल्लेख नहीं मिला। रत्नकरण्डमें सम्यग्दर्शनको तीन मूढ़तारहित, आठ मदरहित और आठ अंगसहित कहा है । उत्तर कालमें इनमें छह अनायतनोंके मिल जानेसे सम्यग्दर्शनके पचीस दोष माने गये । उपासकाध्ययनमें कहा है
_ 'तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और शंका आदि आठ ये सम्यग्दर्शनके पचीस दोष हैं।'
भगवती आराधनामें ही सम्यग्दर्शनके पाँच अतीचारोंमें अनायतन सेवा नामक अतीचार गिनाया है। अनायतनकी परम्पराका उद्गम यहींसे प्रतीत होता है। उसकी टीकामें अपराजित सूरिने अनायतनके छह भेद करते हुए प्रथम भेद मिथ्यात्वके सेवनको अतीचार नहीं, अनाचार कहा है अर्थात् वह मिथ्यादृष्टि ही है। श्वेताम्बर साहित्यमें अनायतन शब्द तो आया है किन्तु छह अनायतन हमारे देखने में नहीं आये ॥१०३॥
आगे कहते हैं कि उपगृहन आदि नहीं करनेवाले सम्यक्त्वके बैरी हैं
जो साधर्मी में विद्यमान या अविद्यमान दोषको-जिससे सम्यक्त्व आदिमें अतीचार लगता है, प्रकाशित करता है, जो सम्यग्दर्शन आदिसे चिगते हुए साधर्मीको पुनः उसी मार्गमें स्थापित नहीं करता, जो पुरुषार्थके साधनकी सामर्थ्य से हीन साधर्मीको साधन सम्पन्न नहीं करता, तथा जो अभ्युदय और मोक्षकी प्राप्तिके उपायरूप मार्गको उसकी महत्तासे भ्रष्ट करता है-लोकमें उसे प्रभावशून्य बतलाता है, ये क्रमशः उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना गुणोंका पालन न करनेवाले चारों सम्यक्त्वके विराधक हैं ।।१०४||
विशेषार्थ-इन चारों गुणोंका स्वरूप समयसारमें तो स्वपरक कहा है और रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें परपरक कहा है। प्रथम कथन निश्चयसे है और दूसरा कथन व्यवहारसे है। जो सिद्ध भक्तिसे युक्त है और सब मिथ्यात्व राग आदि विभाव धर्मोंको ढाँकनेवालादूर करनेवाला है वह सम्यग्दृष्टि उपगृहन अंगका पालक है । जो उन्मार्गमें जाते हुए अपने
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