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________________ द्वितीय अध्याय १८५ 'आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमढं निगद्यते ॥' 'वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥' 'सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम् । पाषण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाषण्डिमोहनम् ॥' [ रत्न. श्रा. २२-२४ ] नैष दोषः, कुदेवे कुलिङ्गिनि वा कदागमस्यान्तर्भावात् । कथमन्यथेदं स्वामिसूक्तमुपपद्यत 'भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुयुः शुद्धदृष्टयः ॥' [ रत्न. श्रा. ३० ] एतदनुसारेणैव ठक्कुरोऽपीदमपाठीत् 'लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ।।' [ पुरुषार्थ. २६ ] विचार:-प्रत्यक्षानुमानागमैर्ययावस्थितवस्तुव्यवस्थापनहेतुः क्षोदः । अमूढदृष्टिः---अमूढा षडनायतनत्यागादनभिभूता दृष्टिः सम्यक्त्वं यस्य । एतेन षडायतनवर्जनद्वारेणामूढदृष्टित्वगुणोऽपि पञ्चमः स्मृतिप्रसिद्धः संगृहीतः । सिद्धान्ते तु चत्वार एव दृग्विशुद्धिवृद्धयर्था गुणाः श्रूयन्ते । तथा चाराधनाशास्त्रं- १५ 'उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा गुणा भणिया। सम्मत्तविसुद्धीए उवगृहणगारया चउरो ॥ [ भ. आरा. ४५ ] 'कल्याणका साधन मानकर नदी या समुद्र में स्नान करना, बालू और पत्थरोंका स्तूप बनाना, पर्वतसे गिरना, अग्निमें प्रवेश करना लोकमूढ़ता है । इस लोक सम्बन्धी फलकी आशा रखनेवाला मनुष्य इच्छित फल प्राप्त करनेकी इच्छासे जो राग-द्वेषसे मलिन देवताओंकी उपासना करता है उसे देवमूढ़ता कहते हैं। परिग्रह और आरम्भ सहित तथा संसारमें भटकानेवाले पाषण्डियोंका-साधुओंका आदर-सत्कार पाषण्डिमूढ़ता है'। इस तरह तीन ही मूढ़ता हैं किन्तु यहाँ चार मूढ़ताएं बतायी हैं। किन्तु यह कोई दोष नहीं है क्योंकि कुदेव और कुगुरुमें कुशास्त्रका अन्तर्भाव होता है। यदि ऐसा न होता तो स्वामी समन्तभद्र ऐसा क्यों कहते कि, _ 'निर्मल सम्यग्दृष्टियोंको भय, आशा, स्नेह और लोभसे कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरुओंको प्रणाम और विनय भी नहीं करना चाहिए।' स्वामीके उक्त कथनका अनुसरण करके अमृतचन्द्रजीने भी कहा है 'लोकमें, शास्त्राभासमें, धर्माभासमें और देवाभासमें तत्त्वों में रुचि रखनेवाले सम्यग्दृष्टिको सदा अमूढदृष्टि होना चाहिए।' अमूढा अर्थात् छह अनायतनोंके त्यागसे अनभिभूत है दृष्टि-सम्यक्त्व जिसका उसे अमूढदृष्टि कहते हैं। इससे छह अनायतनोंके त्यागके द्वारा पाँचवाँ अमूढदृष्टि अंग भी संगृहीत होता है । सिद्धान्त में तो सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि करनेवाले चार ही गुण सुने जाते हैं । आराधना शास्त्र में कहा है __'उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये चार गुण सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिको बढ़ानेवाले हैं। २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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