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________________ द्वितीय अध्याय १८७ इति दोषोज्झनम् । इतो गुणापादनमुच्यते। तत्र तावदुपगृहनगुणमन्तर्बहिर्वृत्तिरूपेण द्विविधमप्यवश्यकर्तव्यतयोपदिशति धर्म स्वबन्धुमभिभूष्णुकषायरक्षः क्षेप्तं क्षमादिपरमास्त्रपरः सदा स्यात् । धर्मोपबृंहणधियाऽबलवालिशात्मयूथ्यात्ययं स्थगयितुं च जिनेन्द्रभक्तः ॥१०५॥ अभिभूष्णु-ताच्छील्येन व्याहतशक्तिकं कुर्वन् । कषायरक्ष:-क्रोधादिराक्षसमिक घोरदुनिवारत्वात् । जिनेन्द्रभक्त:-संज्ञेयम् । उक्तं च 'धर्मो विवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया। परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपबृहणगुणार्थम् ॥' [ पुरुषार्थ. २७ ] ॥१०५॥ आत्माको सन्मार्गमें स्थित करता है वह सम्यग्दृष्टि स्थितिकरण अंगका पालक है। जो मोक्षमार्गके साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको अपनेसे अभिन्न रूपसे अनुभव करता है वह वात्सल्य अंगका धारक है। जो विद्यारूपी रथपर चढ़कर मनरूपी रथके मार्गमें भ्रमण करता है वह सम्यग्दृष्टि प्रभावना अंगका पालक है (समय. गा. २३३३६) । स्वयं शुद्ध रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गमें बाल और अशक्त जनोंके द्वारा होनेवाली निन्दाको जो दूर करता है उसे उपगूहन कहते हैं। सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रसे डिगते हुओंको धर्मप्रेमी पण्डितजनके द्वारा अपने धर्म में स्थिर करना स्थितिकरण है। सार्मियोंके प्रति समीचीन भावसे छल-कपटरहित यथायोग्य आदर भाव वात्सल्य है। अज्ञानान्धकारके फैलावको जैसे भी बने वैसे दूर करके जिनशासनके माहात्म्यको प्रकट करना प्रभावना है [रत्न. श्लो. १५-१८] ॥१०४॥ यहाँ तक सम्यग्दर्शनके दोषोंको त्यागनेका कथन किया । आगे गुणोंको उत्पन्न करनेका कथन करते हैं। उनमें से प्रथम अन्तवृत्ति और बहिवृत्ति रूपसे दोनों प्रकारके उपगूहन गुणको अनिवार्यतः पालन करनेका उपदेश देते है धर्मको बढ़ानेकी भावनासे मुमुक्षुको अपने बन्धुके समान सम्यक्त्वरूप अथवा रत्नत्रयरूप धर्मकी शक्तिको कुण्ठित करनेवाले कषायरूप राक्षसोंका निग्रह करनेके लिए सदा उत्तम क्षमा आदि दिव्य आयुधोंसे सुसज्जित होना चाहिए। और अपने अशक्त तथा अज्ञानी साधर्मी जनोंके दोषोंको ढाँकनेके लिए जिनेन्द्रभक्त नामक सेठकी तरह चेष्टा करना चाहिए ।।१०५॥ विशेषार्थ-इस लोक और परलोकमें बन्धुके समान उपकारी होनेसे धर्म अपना बन्धु है और क्रोधादिरूप कषाय भयानक तथा दुर्निवार होनेसे राक्षसके समान है। यह कषाय धर्मकी शक्तिको कुण्ठित करती है । कषायके रहते हुए सम्यक्त्वरूप या रत्नत्रयरूप धर्म प्रकट होना कठिन होता है। प्रकट भी हो जाये तो उसकी अभ्युन्नति कठिन होती है । अतः कषायोंके विरोधी उत्तम क्षमा आदि भावनासे कषायरूपी राक्षसका दलन करनेके लिए तत्पर रहना चाहिए। उसके बिना आत्मधर्मका पूर्ण विकास सम्भव नहीं है । यह उपबृंहण गुण जो अन्तर्वृत्तिरूप है उसीकी बाह्य वृत्तिका नाम उपगूहन है अर्थात् एक ही गुणको दो नाम दो दृष्टियोंसे दिये गये हैं। अज्ञानी और असमर्थ साधर्मी जनोंके द्वारा होनेवाले अपवादको ढाँककर धर्मको निन्दासे बचाना उपगूहन है। इस उपगूहनसे धर्मका उपबृंहण-वृद्धि होती है क्योंकि धर्मकी निन्दा होनेसे धर्मके प्रसारको हानि पहुँचती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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