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धर्मामृत ( अनगार) एकान्तध्वान्तविध्वस्तवस्तुयाथात्म्यसंविदाम् ।
न कुर्यात् परदृष्टीनां प्रशंसां दृक्कलङ्किनीम् ॥८३॥ परदृष्टीनां-बौद्धादीनाम् ॥८३॥ अथ अनायतनसेवां दृग्मलं निषेधति
मिथ्याग्ज्ञानवृत्तानि त्रीणि त्रीस्तद्वतस्तथा।
षडनायतनान्याहुस्तत्सेवां दृङ्मलं त्यजेत् ॥४४॥ तद्वतः-मिथ्यादृगादियुक्तान् पुरुषान् । उक्तं च
'मिथ्यादर्शनविज्ञानचारित्रैः सह भाषिताः।
तदाधारजनाः पापाः षोढाऽनायतनं जिनैः ।। [अमि. श्रा. २।२५] ॥८४॥ अथ मिथ्यात्वाख्यानायतनं निषेधुं नयति
वस्तु सर्वथा क्षणिक ही है इस प्रकारके एकान्तवादरूपी अन्धकारसे जिनका वस्तुके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान अर्थात् अनेकान्त तत्त्वका बोध नष्ट हो गया है उन बौद्ध आदि एकान्तवादियोंकी प्रशंसा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उससे सम्यक्त्वमें दूषण लगता है।।८३॥
सम्यग्दर्शनके अनायतन सेवा नामक दृष्टिदोषका निषेध कहते हैं
मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीन तथा इनके धारक मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी और मिथ्याचारित्री ये छह अनायतन हैं। सम्यग्दृष्टिको इन छहोंकी उपासना छोड़नी चाहिए, क्योंकि यह सम्यक्त्वका दोष है ॥८४॥
विशेषार्थ-अन्यत्र भी ये ही छह अनायतन कहे हैं यथा
'मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रके साथ उनके धारक पापी जन ये छह अनायतन जिनदेवने कहे हैं। किन्तु द्रव्यसंग्रह (गा. ४१) की टीकामें मिथ्यादेव, मिथ्यादेवके आराधक, मिथ्यातप, मिथ्यातपस्वी, मिथ्याआगम और मिथ्याआगमके धारक ये छह अनायतन कहे हैं । कर्मकाण्ड (गा. ७४)की टीकामें भी ये ही छह अनायतन कहे हैं । भगवती आराधनामें सम्यग्दर्शनके पाँच अतीचार इस प्रकार कहे हैं
शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशंसा और अनायतन सेवा । ऊपरके कथनसे ये पाँचों अतीचार आ जाते हैं । इस गाथाकी विजयोदया टीकामें भी आशाधरजीके द्वारा कहे गये छह अनायतन गिनाये हैं। कांक्षा नामक अतीचारको स्पष्ट करते हुए विजयोदया टीकामें कहा है कि असंयत सम्यग्दृष्टि और देशसंयमीको आहारादिकी कांक्षा होती है, प्रमत्त संयत मुनिको परीषहसे पीड़ित होनेपर खानपानकी कांक्षा होती है। इसी तरह भव्यों को सुखकी कांक्षा होती है किन्तु कांक्षा मात्र अतीचार नहीं है, दर्शनसे, व्रतसे, दानसे, देवपूजासे उत्पन्न हुए पुण्यसे मुझे अच्छा कुल, रूप, धन, स्त्री पुत्रादिक प्राप्त हों, इस प्रकार की कांक्षा सम्यग्दर्शनका अतीचार है ।।८४॥
__ आगे मिथ्यात्व नामक अनायतनके सेवनका निषेध करते हैं
सम्मत्तादीचारा संका कंखा तहेव विदिगिंछा। परदिट्ठीणपसंसा अणायदण सेवणा चेव ॥ -गा. ४४ ।
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