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________________ द्वितीय अध्याय अथ महासत्त्वानां निमित्तसंनिधानेऽपि जुगुप्सानुद्भावं भावयति - fioचित्कारणमाप्य लिङ्गमुदयन्निर्वेदमासेदुषो, धर्माय स्थितिमात्र विध्यनुगमेऽप्युच्चैरवद्याद्भिया । स्नानादिप्रतिकमंदूरमनसः प्रव्यक्तकुत्स्याकृति, कार्य वीक्ष्य निमज्जतो मुदि जिनं स्मतुः क्व शूकोद्गमः ॥८१॥ लिङ्ग - आचेलक्यलोचादि । आसेदुषः - आश्रितस्य ॥ ८१ ॥ अथ विचिकित्साविरहे यत्नमादिशति द्रव्यं विडादि करणैर्न मयैति पूक्ति, भावः क्षुदादिरपि वैकृत एव मेऽयम् । तत्कि मात्र विचिकित्स्यमिति स्वमृच्छे दुद्दानं मुनिरुगुद्धरणे स्मरेच्च ॥८२॥ विडादि -- पुरीषमूत्रादि । पृक्ति – संपर्कम् । अत्र – एतयोर्द्रव्यभावयोर्मध्ये । किं विचिकित्स्यंकिमपीत्यर्थः । स्वमृच्छेत् — आत्मानमाविशेत् सम्यग्दृष्टिरिति शेषः ॥८२॥ अथ परदृष्टिप्रशंसां सम्यक्त्वमलं निषेद्धुं प्रयुङ्क्ते - १७३ Jain Education International मूल शरीर में रहते हुए कभी भी उससे ग्लानि नहीं करते हैं। इससे वे सन्त पुरुष निश्चय ही कर्म-मलसे रहित अपनी आत्मामें ज्ञानको प्राप्त करते हैं ||८०|| महापुरुषोंको निमित्त मिलने पर भी ग्लानि नहीं होती किसी इष्टवियोग आदि कारणको पाकर, वैराग्यके बढ़नेपर केशलोंच पूर्वक दिगम्बर मुनिलिंगको धारण करके, धर्मकी साधना के हेतु शरीरकी केवलस्थिति बनाये रखने के लिए, न कि बाह्य चमक-दमक के लिए, विधिपूर्वक आहार आदि ग्रहण करते हुए भी, पापके अत्यधिक भय से स्नान, तेलमर्दन आदि प्रसाधनोंसे जिनका मन अत्यन्त निवृत्त है. अतएव अत्यन्त स्पष्ट बीभत्स रूपवाले उन मुनिराज के शरीरको देखकर जिन भगवान्का स्मरण करते हुए आनन्दमें निमग्न सम्यग्दृष्टि को ग्लानि कैसे हो सकती है अर्थात् नहीं हो सकती ||८१|| विचिकित्सा के त्यागके लिए प्रयत्न करनेका उपदेश देते हैं विष्टा, मूत्र, आदि द्रव्य अचेतन, स्पर्शन आदि इन्द्रियोंके साथ सम्बन्ध करता है, मेरे चिद्रूपके साथ नहीं, क्योंकि मूर्तका सम्पर्क मूर्तके ही साथ होता है । मेरे यह भूख प्यास आदि भी कर्मके उदयसे होने के कारण वैकारिक ही हैं । इसलिए इन द्रव्य और भावोंमें किससे मुझे विचिकित्सा करनी चाहिए ? ऐसा विचार करते हुए सम्यग्दृष्टिको शुद्ध चैतन्य रूप आत्मा में स्थिर होना चाहिए। तथा मुनियोंके रोगका निवारण करने में राजा उद्दायनका स्मरण करना चाहिए ॥ ८२ ॥ -न १२ विशेषार्थ - राजा उद्दायन निर्विचिकित्सा अंगका पालन करनेमें प्रसिद्ध हुआ है । उसने मुनिको वमन हो जानेपर भी ग्लानि नहीं की थी और उनकी परिचर्या में लगा रहा था ॥ ८२ ॥ सम्यक्त्व पर दृष्टि प्रशंसा नामक अतीचारको दूर करनेकी प्रेरणा करते हैं For Private & Personal Use Only ३ ६ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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