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द्वितीय अध्याय
१७५
सम्यक्त्वगन्धकलभः प्रबलप्रतिपक्षकरटिसंघट्टम् ।
कुर्वन्नेव निवार्यः स्वपक्षकल्याणमभिलषता ॥४५॥ प्रतिपक्षः-मिथ्यात्वं शत्रुश्च । स्वपक्षः-आत्माभ्युपगतव्रतादिकं निजयूथं च ॥८५॥ अथ सम्यक्त्वप्रौढिमतो मदमिथ्यात्वावेशशङ्कां निरस्यति
मा भैषीदृष्टिसिंहेन राजन्वति मनोवने।
न मदान्धोऽपि मिथ्यात्वगन्धहस्ती चरिष्यति ॥८६॥ राजन्वति-दुष्टनिग्रहशिष्टपरिपालनपरेण राज्ञा युक्ते परपराभवाविषये इत्यर्थः । मदः-जात्यादिअभिमानो दानं च ।।८६॥ अथ जात्यादिभिरात्मोत्कर्षसंभाविनः सधर्माभिभवनमुखेन सम्यक्त्वमाहात्म्यहानि दर्शयति
संभावयन् जातिकुलाभिरूप्यविभूतिधीशक्तितपोऽर्चनाभिः ।
स्वोत्कर्षमन्यस्य सधर्मणो वा कुर्वन् प्रघर्ष प्रदुनोति दृष्टिम् ॥८॥ आभिरूप्यं-सौरूप्यम् । धीः-शिल्पकलादिज्ञानम् । अन्यस्य-जात्यदिना हीनस्य । प्रदुनोति- १२ माहात्म्यादपकर्षति ॥८७॥
अथ जातिकुलमदयोः परिहारमाह
जैसे अपने यूथका कल्याण चाहनेवाला यूथनाथ-हस्तीसमूहका स्वामी प्रधान हाथी अपने होनहार बाल हाथीको अपने प्रतिपक्षके प्रबल हाथीके साथ लड़ाई करते ही रोक देता है, उसी तरह अपने द्वारा धारण किये गये व्रतादिका संरक्षण चाहनेवाले सम्यक्त्वके आराधक भव्यको प्रबल मिथ्यात्वके साथ संघर्ष होते ही अपने सम्यक्त्वकी रक्षा करने में तत्पर रहना चाहिए क्योंकि आगामी ज्ञान और चारित्रकी पुष्टि में सम्यक्त्व ही निमित्त होता है ॥८५।।
प्रौढ़ सम्यक्त्वके धारक सम्यग्दृष्टि के अभिमानरूपी मिथ्यात्वके आवेशकी शंकाको दूर करते हैं
हे सुदृढ़ सम्यग्दृष्टि ! तू मत डर, क्योंकि सम्यग्दर्शन रूपी सिंहका जहाँ राज्य है उस मन रूपी वनमें मदान्ध (हाथीके पक्ष में मदसे अन्ध, मिथ्यात्वके पक्षमें मदसे अन्धाहिताहितके विचारसे शून्य करनेवाला) मिथ्यात्वरूपी गन्धहस्ती विचरण नहीं कर सकेगा ।।८६॥
जाति आदिके मदसे अहंकाराविष्ट हुआ सम्यग्दृष्टि साधर्मीके अपमानकी ओर अभिमुख होनेसे सम्यक्त्वके माहात्म्यको हानि पहुँचाता है यह बतलाते हैं
जाति, कुल, सुन्दरता, समृद्धि, ज्ञान, शक्ति, तप और पूजासे अपना उत्कर्ष माननेवाला-मैं उससे बड़ा हूँ ऐसा समझनेवाला अथवा अन्य साधर्मीका तिरस्कार करनेवाला सम्यक्त्वकी महत्ताको घटाता है ॥८॥
विशेषार्थ-कहा भी है, जो अहंकारी अहंकारवश अन्य साधर्मियोंका अपमान करता है वह अपने धर्मका अपमान करता है क्योंकि धार्मिकोंके विना धर्म नहीं रहता !!८७॥
जातिमद और कुलमदको त्यागनेका उपदेश देते हैं
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