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द्वितीय अध्याय
१५७
अथ तदुल्लेखमाह
समेऽप्यनन्तशक्तित्वे सर्वेषामहंतामयम् ।
देवोऽस्मै प्रभुरेषोऽस्मा इत्यास्था सुदृशामपि ॥६॥ अयं देवः-पार्श्वनाथादिः । अस्मै-उपसर्गादिनिवारणाय । प्रभुः-समर्थः । आस्था-प्रतिपत्तिदायम् ॥६१॥ अथ आज्ञासम्यक्त्वादिभेदानाह
आज्ञामार्गोपदेशार्थबीजसंक्षेपसूत्रजाः।
विस्तारजावगाढासौ परमा दशधेति दृक् ॥६२॥ आज्ञा-जिनोक्तागमानुज्ञा । मार्ग:-रत्नत्रयविचारसर्गः। उपदेशः-पुराणपुरुषचरणाभिनिवेशः। ९ अर्थः-प्रवचनविषये स्वप्रत्ययसमर्थः। बीजम्-सकलसमंथ (समय) दलसूचनाव्याजम् । संक्षेपः-आप्तश्रुतवतसमासलोपक्षेपः। सूत्रं-यतिजनाचरणनिरूपणपात्रम् । विस्तारः--द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्वप्रकीर्णकविस्तीर्णश्रतार्थसमर्थनप्रस्तारः। अवगाढा-त्रिविधस्यागमस्य निःशेषतोऽन्यतमदेशावगाहालीढा । असौ- १२ परमा-परमावगाढा अवधिमनःपर्ययकेवलाधिकपुरुषप्रत्ययप्ररूढा ॥६२॥
सभी तीर्थंकरोंमें अनन्तशक्तिके समान होनेपर भी सम्यग्दृष्टियोंकी भी ऐसी श्रद्धा रहती है कि यह भगवान् पाश्र्वनाथ उपसर्ग आदि दूर करने में समर्थ हैं और यह भगवान् शान्तिनाथ शान्तिके दाता हैं ॥६१।।
विशेषार्थ-इन दोषोंका स्वरूप इस प्रकार भी कहा है-'
जो कुछ काल तक ठहरकर चलायमान होता है उसे चल कहते हैं और जो शंका आदि दोषोंसे दूषित होता है उसे मलिन कहते हैं। वेदक सम्यक्त्व चल और मलिन होनेसे अगाढ और अनवस्थित होनेके साथ किसी अपेक्षा नित्य भी है क्योंकि अन्तर्मुहूर्तसे लेकर छियासठ सागर तक रहता है अर्थात् वेदक सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति छियासठ सागर होनेसे वह चल भी है और स्थायी भी है ॥६१॥
आगे आज्ञा सम्यक्त्व आदि दस भेद कहते हैं
सम्यक्त्वके दस भेद हैं-आज्ञा सम्यक्त्व, मार्गसम्यक्त्व, उपदेशसम्यक्त्व, अर्थसम्यक्त्व, बीज सम्यक्त्व, संक्षेपसम्यक्त्व, सूत्र सम्यक्त्व, विस्तार सम्यक्त्व, अवगाढ सम्यक्त्व, परमावगाढ सम्यक्त्व ॥६२।।
विशेषार्थ-दर्शनमोहके उपशमसे शास्त्राध्ययनके बिना केवल वीतराग भगवान्की आज्ञासे ही जो तत्त्वश्रद्धान होता है उसे आज्ञा सम्यक्त्व कहते हैं। दर्शनमोहका उपशम होनेसे शास्त्राध्ययनके बिना रत्नत्रय रूप मोक्षमार्गमें रुचि होनेको मार्ग सम्यक्त्व कहते हैं। वेसठ शलाक का पुरुषों के चरितको सुननेसे जो तत्त्वश्रद्धान होता है वह उपदेश सम्यग्दर्शन है। किसी अर्थके द्वारा प्रवचनके विषयमें जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उसे अर्थ सम्यक्त्व कहते हैं। बीजपदोंसे होनेवाले तत्त्वश्रद्धानको बीज सम्यग्दर्शन कहते हैं। देव, शास्त्र,
१. 'कियन्तमपि यत्कालं स्थित्वा चलति तच्चलम ।
वेदकं मलिनं जातु शङ्काद्यैर्यत्कलङ्कयते ।। यच्चलं मलिनं चास्मादगाढमनवस्थितम् । नित्यं चान्तर्मुहूर्तादि षट्पष्टयब्ध्यन्तवति यत् ॥'
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