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धर्मामृत ( अनगार) अथ वेदकस्यागाढत्वं दृष्टान्तेनाचष्टे
वद्धपष्टिरिवात्यक्तस्थाना करतले स्थिता।
स्थान एव स्थितं कम्प्रमगाढं वेदकं यथा ॥५७॥ स्थाने-विषये देवादौ ॥५७॥ अथ तदगाढतोल्लेखमाह
स्वकारितेऽर्हच्चैत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते।
अन्यस्यासाविति भ्राम्यन् मोहाच्छ्राद्धोऽपि चेष्टते ॥५८॥ मोहात्-सम्यक्त्वप्रकृतिविपाकात् । श्राद्धः-श्रद्धावान् । चेष्टते-प्रवृत्तिनिवृत्ति करोति ॥५८॥ अथ तन्मालिन्यं व्याचष्टे
तदप्यलब्धमाहात्म्यं पाकात् सम्यक्त्वकर्मणः।
मलिनं मलसङ्गेन शुद्धं स्वर्णमिवोद्भवेत् ॥५९॥ अलब्धमाहात्म्यं-अप्राप्तकर्मक्षपणातिशयम् । मलसङ्गेन-शंकादीनां रजतादीनां च ससंर्गेण ॥५९॥ अथ तच्चलत्वं विवृणोति
लसत्कल्लोलमालासु जलमेकमिव स्थितम् ।
नानात्मीयविशेषेषु चलतीति चलं यथा ॥६॥ नानेत्यादि-नानाप्रकारस्वविषयदेवादिभेदेषु ॥६०॥
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वेदक सम्यक्त्वकी अगाढ़ताको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं
जैसे वृद्ध पुरुषके हाथकी लाठी हाथमें ही रहती है उससे छूटती नहीं है, न अपने स्थानको ही छोड़ती है फिर भी कुछ काँपती रहती है। वैसे ही वेदक सम्यक्त्व अपने विषय देव आदिमें स्थित रहते हुए भी थोड़ा सकम्प होता है- स्थिर नहीं रहता ।।५।।
इस अगाढ़ताको बतलाते हैं
मिथ्यादृष्टिकी तो बात ही क्या, श्रद्धावान सम्यग्दृष्टि भी सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे भ्रममें पड़कर अपने बनवाये हुए जिनप्रतिमा, जिनमन्दिर वगैरह में, यह मेरे देव हैं, यह मेरा जिनालय है तथा दूसरेके बनवाये हुए जिनमन्दिर-जिनालय वगैरहमें, यह अमुकका है, ऐसा व्यवहार करता है ।।५८।।
वेदक सम्यक्त्वके मलिनता दोषको कहते हैं
जैसे स्वर्ण पहले अपने कारणोंसे शुद्ध उत्पन्न होकर भी चाँदी आदिके मेलसे मलिन हो जाता है वैसे ही क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन उत्पत्तिके समय निर्मल होनेपर भी सम्यक्त्वकर्मके उदयसे कर्मक्षयके द्वारा होनेवाले अतिशयसे अछूता रहते हुए शंका आदि दोषोंके संसर्गसे मलिन हो जाता है ॥५९॥
वेदक सम्यक्त्वके चलपनेको कहते हैं
जैसे उठती हुई लहरोंमें जल एकरूप ही स्थित रहता है, लहरोंके कारण जलमें कोई अन्तर नहीं पड़ता, वैसे ही सम्यग्दर्शनके विषयभूत नाना प्रकारके देव आदि भेदोंमें स्थित रहते हुए भी चंचलताके कारण वेदक सम्यक्त्व चल होता है ॥६०॥ जैसे
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