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________________ १५८ धर्मामृत ( अनगार) अथ आज्ञासम्यक्त्वसाधनोपायमाह देवोऽर्हन्नेव तस्यैव वचस्तथ्यं शिवप्रदः । धर्मस्तदुक्त एवेति निबन्धः साधयेद दृशम् ॥६३॥ निर्बन्धः-अभिनिवेशः, साधयेत्-उत्पादयेत् ज्ञापयेत् ॥६३॥ अथ वृत्तपञ्चकेन सम्यग्दर्शनमहिमानमभिष्टौति-तत्र तावविनेयानां सुखस्मत्यर्थ तत्सामग्रीस्वरूपे अनद्य ६ संक्षेपेणानन्यसंभवतन्महिमानमभिव्यक्तुमाह प्राच्येनाथ तदातनेन गुरुवाग्बोधेन कालारुण स्थामक्षामतमश्छिदे दिनकृतेवोदेष्यताविष्कृतम्। तत्त्वं हेयमुपेयवत् प्रतियता संवित्तिकान्ताश्रिता सम्यक्त्वप्रभुणा प्रणीतमहिमा धन्यो जगज्जेष्यति ॥६४॥ व्रत, पदार्थ आदिको संक्षेपसे ही जानकर जो तत्वार्थ श्रद्धान होता है वह संक्षेप सम्यग्दर्शन है। मुनिके आचरणको सूचित करनेवाले आचार सूत्रको सुननेसे जो तत्त्वश्रद्धान होता है उसे सूत्र सम्यग्दर्शन कहते हैं। बारह अंग, चौदह पूर्व तथा अंग बाह्यरूप विस्तीर्ण श्रुतको सुनकर जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है उसे विस्तार सम्यग्दर्शन कहते हैं। अंग, पूर्व और प्रकीर्णक रूप आगमोंको पूरी तरहसे जानकर श्रद्धानमें जो अवगाढपन आता है उसे अवगाढ सम्यग्दर्शन कहते हैं। और केवलज्ञानके द्वारा पदार्थों को साक्षात् जानकर जो श्रद्धामें परमावगाढपना होता है उसे परमावगाढ सम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्यग्दर्शनके ये भेद प्रायः तत्त्वज्ञानके बाह्य निमित्तोंकी प्रधानतासे कहे हैं। सम्यक्त्वकी उत्पत्ति तो दर्शनमोहकी उपशमना आदि पूर्वक ही होती है ॥६२॥ आगे आज्ञा सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके उपाय बताते हैं अर्हन्त ही सच्चे देव हैं, उन्हीं के वचन सत्य हैं, उन्हींके द्वारा कहा गया धर्म मोक्षदाता है, इस प्रकारका आग्रहपूर्ण भाव सम्यग्दर्शनका उत्पादक भी होता है और ज्ञापक भी होता है अर्थात् उक्त प्रकारकी दृढ़ भावना होनेसे ही सम्यक्त्व उत्पन्न होता है तथा उससे ही यह समझा जा सकता है कि अमुक पुरुष सम्यग्दृष्टि है ॥६३।। आगे पाँच पद्योंसे सम्यग्दर्शनकी महिमा बतलाते हैं। सर्वप्रथम शिष्योंको सुखपूर्वक स्मृति करानेके लिए सम्यग्दर्शनकी सामग्री और स्वरूप बताकर संक्षेपसे उसकी असाधारण महिमा प्रकट करते हैं जैसे सूर्यके सारथिकी शक्तिसे मन्द हुए अन्धकारका छेदन करनेके लिए सूर्यका उदय होता है उसी तरह काल क्षेत्र द्रव्यभावकी शक्तिके द्वारा मन्द हुए दर्शनमोहका छेदन करनेके लिए सम्यग्दर्शनसे पहले अथवा उसके समकालमें गुरु अर्थात् महान् आगमज्ञान या गुरुके उपदेशसे होनेवाला ज्ञान उदित होता है। उससे उपादेय तत्त्वकी तरह हेय तत्त्वकी भी प्रतीति करनेवाला और सम्यक् ज्ञप्तिरूपी पत्नीसे युक्त सम्यग्दर्शन प्रभुके द्वारा महत्ताको प्राप्त हुआ पुण्यशाली सम्यग्दृष्टि जीव निश्चयसे स्वचिन्मय और व्यवहारसे जीवादि द्रव्योंके समुदायरूप लोकको वश में करता है अर्थात् वह सर्वज्ञ और सर्वजगत्का भोक्ता होता है ।।६४।। विशेषार्थ-उक्त श्लोकमें केवल काल शब्द दिया है। उससे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके योग्य काल-क्षेत्र-द्रव्य-भाव चारों लेना चाहिए। उस कालको अरुण-सूर्यके सारथिकी उपमा दी है क्योंकि वह सूर्यके सारथिकी तरह दर्शनमोहरूपी अन्धकारको मन्द करने में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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