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________________ ३ ६ १४४ १५ अथ मुक्तात्मस्वरूपं प्ररूपयति मज्जन्तः - एतेन वैलक्षण्यं लक्षयति निरूपाख्येत्यादि । निरुपाख्य मोक्षार्थिनः प्रदीपनिर्वाणकल्पमात्मनिर्वाणमिति निःस्वभावमोक्षवादिनो बौद्धाः मोघ चिन्मोक्षार्थिनः 'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपं तच्च ज्ञेयराकारपरिच्छेदपराङ्मुखमिति निष्फलचैतन्यस्वभावमोक्षवादिनः सांख्याः । अचिन्मोक्षार्थिनः बुद्ध्यादि-नवात्म९ विशेषगुणोच्छेदलक्षणनिश्चैतन्यमोक्षवादिनो वैशेषिकाः । तेषां तीर्थान्यागमान् क्षिपन्ति निराकुर्वन्ति तद्विलक्षणमोक्षप्रतिष्ठितत्वात् । जन्म – संसारः, संतानरूपतयादिरहितमपि सान्तं - सविनाशं कृत्वा । अमृतं - मोक्षं पर्यायरूपतया साद्यपि पुनर्भवाभावादनन्तं - निरवधि । सदृगित्यादि - आरम्भावस्थापेक्षया सम्यक्त्वादिना सिद्धाः । केचिद्धि सम्यग्दर्शनाराधनाप्राधान्येन प्रक्रम्य संपूर्णरत्नत्रयं कृत्वा प्रक्षीणमलकलङ्काः स्वात्मोपलब्धिलक्षणां सिद्धिमध्यासिता । एवं सम्यग्ज्ञानादावपि योज्यम् । तथा चोक्तम् १२ धर्मामृत (अनगार ) प्रक्षीणे मणिवन्मले स्वमहसि स्वार्थप्रकाशात्मके मज्जन्तो निरुपाख्य मोघचिदचिन्मोक्षार्थितीर्थक्षिपः । कृत्वानाद्यपि जन्म सान्तममृतं साद्यप्यनन्तं श्रिताः सदृग्धीनयवृत्तसंयमतपः सिद्धाः सदानन्दिनः ॥ ४५ ॥ 'तवसिद्धे णयसिद्धे संजमसिद्धे चरित्तसिद्धे य । णामि दंसणं मिय सिद्धे सिरसा णमंसामि ॥ [ सिद्धभक्ति ] इति समासतो जीवादिनवपदार्थव्यवस्था | व्यासतस्तु परमागमार्ण वावगाहनादधिगन्तव्या ॥ ४५ ॥ आगे मुक्तात्माका स्वरूप कहते हैं - Jain Education International मणिकी तरह द्रव्यकर्म और भावकर्मरूपी मलके पूर्णरूपसे क्षय हो जानेपर, अपने और त्रिकालवर्ती ज्ञेय पदार्थों का एक साथ प्रकाश करनेवाले दर्शन ज्ञानरूप स्वाभाविक निज तेज में निमग्न और निरूपाख्यमुक्ति, निष्फल चैतन्यरूप मुक्ति और अचेतन मुक्ति के इच्छुक दार्शनिकोंके मतोंका निराकरण करनेवाले, अनादि भी जन्मपरम्पराको सान्त करनेवाले, तथा सादि भी मोक्षको अनन्त रूपसे अपनानेवाले, और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, नय, चारित्र, संयम और तपके द्वारा आत्म स्वभावको साध लेनेवाले सदा आनन्द स्वरूप मुक्त जीव होते हैं ॥४५॥ विशेषार्थ - जैसे मणि अपने ऊपर लगे मलके दूर हो जानेपर अपने और परका प्रकाश करनेवाले अपने तेजमें डूबी रहती है उसी तरह मुक्तात्मा भी द्रव्यकर्म और भावकर्मके नष्ट हो जानेपर अपने और त्रिकालवर्ती पदार्थों को जाननेवाले अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञानरूप अपने स्वरूपको लिये हुए उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य रूपसे सदा परिणमन करते हैं । अन्य दार्शनिकोंने मुक्तिको अन्यरूप माना है । बौद्ध दर्शन निःस्वभाव मोक्षवादी है । जैसे तेल और बातीके जलकर समाप्त हो जानेपर दीपकका निर्वाण हो जाता है उसी तरह पाँच स्कन्धोंका निरोध होनेपर आत्माका निर्वाण होता है । बौद्ध आत्माका अस्तित्व नहीं मानता और उसका निर्वाण शून्य रूप है । सांख्य मुक्ति में चैतन्य तो मानता है किन्तु ज्ञानादि नहीं मानना । वैशेषिक मोक्षमें आत्माके विशेष गुणोंका विनाश मानता है। जैन दर्शन इन सबसे विलक्षण मोक्ष मानता है । अत: जैन सम्मत मुक्तात्मा इन दार्शनिकोंकी मुक्ति सम्बन्धी मान्यताको काटनेवाले हैं। वे अनन्त संसारको सान्त करके मोक्ष प्राप्त करते हैं उस मोक्षकी आदि तो है किन्तु अन्त नहीं है वहाँ से जीव कभी संसार में नहीं आता । इस तरह संक्षेपसे जीव आदि नौ पदार्थों की व्यवस्था जानना । विस्तार से जाननेके लिए समयसार तत्त्वार्थ सूत्र आदि पढ़ना चाहिये | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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