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________________ द्वितीय अध्याय अथ एवं विधतत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणस्य सम्यक्त्वस्य सामग्रीविशेषं श्लोकद्वयेनाह दृष्टिन सप्तकस्यान्तर्हेतावुपशमे क्षये । • क्षयोपशम आहोस्विव्यः कालादिलब्धिभाक ॥ ४६ ॥ पूर्णः संज्ञी निसर्गेण गृह्णात्यधिगमेन वा । त्र्यज्ञानशुद्धिदं तत्त्वश्रद्धानात्मसुदर्शनम् ॥४७॥ संज्ञी - ६ दृष्टिघ्नसप्तकस्य — दृष्टि सम्यक्त्वं घ्नन्ति दृष्टिघ्नानि मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वानन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभाख्यानि कर्माणि । उपशमे – स्वफलदानसामर्थ्यानुद्भवे । क्षये — आत्यन्तिकनिवृत्तौ । क्षयोपशमे — क्षीणाक्षीणवृत्तौ । भव्यः सिद्धियोग्यो जीवः । कालादिलब्धिभाक् — -काल वेदनाभिभवादीनां ते कालादयस्तेषां लब्धिः सम्यक्त्वोत्पादने योग्यता तां भजन् ||४६॥ आदिर्येषां पूर्णः - षट् पर्याप्तियुक्तः । तल्लक्षणं यथा— 'आहाराङ्गहृषीकान- भाषामानसलक्षणाः । पर्याप्तयः षडत्रादि शक्ति-निष्पत्ति-हेतवः ॥' [ अमित. पं. सं. १।१२८ ] शिक्षालापोपदेशानां ग्राहको यः स मानसः । स संज्ञी कथितोऽसंज्ञी हेया ( देया) विवेचकः ॥ [ अमित पं. सं. १।३१९ ] १४५ आगे तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनकी विशेष सामग्री दो इलोकोंसे कहते हैंकालादिलब्धिसे युक्त संज्ञी पर्याप्तक भव्य जीव सम्यग्दर्शनका घात करनेवाली सात कर्म प्रकृतियोंके उपशम, क्षय या क्षयोपशमरूप अन्तरंग कारणके होनेपर निसर्गसे या अधिगम से तत्त्वश्रद्धानस्वरूप सम्यग्दर्शनको ग्रहण करता है । उस सम्यग्दर्शनके होनेपर कुमति, कुश्रुत और कुअवधिज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाते हैं ।।४६-४७।। विशेषार्थ - जो शिक्षा, बातचीत और उपदेशको ग्रहण कर सकता है वह जीव संज्ञी है । कहा भी है 'जो शिक्षा, आलाप उपदेशको ग्रहण करता है उस मनसहित जीवको संज्ञी कहते हैं । जो हे उपायका विचार नहीं कर सकता वह असंज्ञी है' । जिसकी आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ पूर्ण होती हैं उसे पर्याप्तक कहते हैं । कहा भी है- ' आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ शक्तिकी निष्पत्ति में कारण हैं' । जिसे जीव में मोक्ष प्राप्तिकी योग्यता है उसे भव्य कहते हैं । और सम्यक्त्वग्रहणकी योग्यताको लब्धि कहते हैं । कहा भी है Jain Education International 'चारों गतियोंमें से किसी भी गतिवाला भव्य, संज्ञी, पर्याप्तक, मन्द कषायी, ज्ञानोपयोगयुक्त, जागता हुआ, शुभलेश्यावाला तथा करणलब्धि से सम्पन्न जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है' । सम्यग्दर्शनका घात करनेवाली सात कर्म प्रकृतियाँ हैं - मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, अनन्तानुबन्धी, क्रोध, मान, माया, लोभ । इनका उपशम, क्षय या क्षयोपशम सम्यग्दर्शनका अन्तरंग कारण है । अपना फल देनेकी शक्तिको प्रकट होनेके अयोग्य कर देना उपशम है । कर्मका विनाश क्षय है । आत्माके गुणोंको एकदम ढाँकने वाली कर्मशक्तिको १९ For Private & Personal Use Only ३ ९ १२ १५ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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