________________
द्वितीय अध्याय
१४३
६
'आत्यन्तिकः स्वहेतोर्यो विश्लेषो जीवकर्मणोः ।
स मोक्ष फलमेतस्य ज्ञानाद्याः क्षायिका गुणाः ॥ [ तत्त्वानुशा. २३० ] तथा-'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः' [त. सू. १०।२] इत्यादि । तथैव संजग्राह भगवान्ने मिचन्द्र:
'सव्वस्स कम्मणो जो खयहेऊ अप्पणो हु परिणामो।
णेओ स भावमोक्खो दव्वविमोवखो य कम्मपुधभावो ॥' [ द्रव्यसं. ३७ ] ॥४४॥ आत्मासे समस्त कर्म छूटते हैं-अर्थात् नवीन कर्म तो परम संवरके द्वारा रोक दिये जाते हैं और पूर्वबद्ध समस्त कर्म परम निर्जराके द्वारा आत्मासे अत्यन्त पृथक् कर दिये जाते हैं वह निश्चय रत्नत्रयरूप आत्मपरिणाम भावमोक्ष है। समस्त कर्मसे आठों कर्म लेना चाहिए । पहले मोहनीय आदि घाति कर्मोंका विनाश होता है पीछे अघाति कर्मोंका विनाश होता है। इस तरह समस्त कर्मोंका क्षय हो जाना अर्थात् जीवसे अत्यन्त पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष है । कहा भी है
'बन्धके कारणोंका अभाव होनेसे नवीन कर्मोंका अभाव हो जाता है और निर्जराके कारण मिलनेपर संचित कर्मका अभाव हो जाता है । इस तरह समस्त कर्मोंसे छूट जानेको मोक्ष कहते हैं।
'अपने कारणसे जीव और कर्मका जो आत्यन्तिक विश्लेष है-सर्वदाके लिये पृथक्ता है वह मोक्ष है । उसका फल क्षायिक ज्ञानादि गुणोंकी प्राप्ति है। कर्मोका क्षय हो जानेपर आत्माके स्वाभाविक गुण प्रकट हो जाते हैं।
'आत्माका जो परिणाम समस्त कर्मों के क्षयमें हेतु है उसे भावमोक्ष जानो। और आत्मासे कर्मोंका पृथक् होना द्रव्यमोक्ष है'।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें निश्चयनय और व्यवहारनयसे मोक्षके कारणका विवेचन इस प्रकार किया है
'इसके पश्चात् मोहनीय कर्मके क्षयसे युक्त पुरुष केवलज्ञानको प्रकट करके अयोगकेवली गणस्थानके अन्तिम क्षणमें अशरीरीपनेका साक्षात हेतु रत्नत्रयरूपसे परिणमन करता है। निश्चयनयसे यह कथन निर्बाध है। अर्थात् निश्चयनयसे अयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम क्षणमें रहनेवाला रत्नत्रय मोक्षका साक्षात् कारण है क्योंकि उससे अगले ही क्षणमें मोक्षकी प्राप्ति होती है। और व्यवहारनयसे तो रत्नत्रय इससे पहले भी मोक्षका कारण कहा जाता है, अतः इसमें विवाद करना उचित नहीं है। अर्थात् व्यवहारनयसे रत्नत्रय मोक्षका कारण है। यह कथन परम्पराकारणकी अपेक्षा है। किन्तु साक्षात् कारण तो चौदहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें वर्तमान रत्नत्रय ही है क्योंकि उसके दूसरे ही क्षणमें मोक्षकी प्राप्ति होती है ।।४४|| १. ततो मोहक्षयोपेतः पुमानुभूतकेवलः । विशिष्टकरण : साक्षादशरीरत्वहेतुना ।। रत्नत्रितयरूपेणायोगकेवलिनोऽन्तिमे । क्षणे विवर्तते ह्येतदबाध्यं निश्चयान्नयात् ।। व्यवहारनयाश्रित्या त्वेतत् प्रागेव कारणम् । मोक्षस्येति विवादेन पर्याप्तं न्यायदर्शिनः ।।-४११९३-९६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org